हीगल के आदर्शवाद के सिद्धान्त | हीगल के प्रमुख राजनीतिक विचारों एवं आदर्शवादी विचारों का विवेचन

हीगल के प्रमुख राजनीतिक विचारों एवं आदर्शवादी विचारों का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है-(1) हीगल के राज्य सम्बन्धी विचार (2) हीगल के स्वतंत्रता सम्बन्धी विचार (3) हीगल के सरकार सम्बन्धी विचार (4) हीगल के युद्ध सम्बन्थी विचार।

  1. हीगल के राज्य सम्बन्धी विचार

हीगल के राज्य सम्बन्धी विचारों का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया

(1) राज्य का अर्थ -हीगल ने अपनी विभिन्न कृतियों में ‘राज्य’ शब्द का प्रयोग तीन विभिन्न अरथों में किया है। यथा-

(अ) प्रथम, उसने अपने लेख The German Constitution’ में राज्य को परिभाषित करते हुए लिखा है कि “राज्य मानवों का एक ऐसा समुदाय है जो सामूहिक रूप से सम्पत्ति की रक्षा के लिए संगठित होता है। इसलिए सार्वजनिक सेना और सत्ता का निर्माण कर ही रांज्य की स्थापना की जा सकती है। ” इसका अभिप्राय यह है कि राज्य मूलत: एक शक्ति है जो राष्ट्रीय एकता को प्रकट करते हुए राष्ट्रीय इच्छा को घरेलू और वैदेशिक क्षेत्रों में प्रभावकारी रूप से लागू करता है। हीगल की राज्य की इस धारणा में दो बातें महत्त्वपूर्ण हैं । एक, यद्यपि हीगल ने शक्ति को राज्य का अनिवार्य तत्व माना है तथापि उसके अनुसार राज्य का सार कानून है, शवक्ति नहीं। दूसरे, यद्यपि हीगल ने सार्वजनिक सुरक्षा के लिए मानवों के संगठित समुदाय को राज्य की संज्ञा दी है, तथापि वह सामाजिक समझौते का परिणाम न होकर अपने ऐतिहासिक विकास, सामुदायिक जीवन एवं परिवर्तित परिस्थितियों का पपरिणाम है।

(ब) दूसरे अर्थ में, हीगल ने ‘राज्य’ का प्रयोग एक संकीर्ण अर्थ में किया है । इस अर्थ में उसने राज्य को समुदाय का कानूनी और राजनीतिक ढाँचा कहा है । राज्य की इस धारणा को वह सामान्यत: Volk’ और कभी-कभी ‘Nation’ भी कहता है। समुदाय के सामाजिक ढाँचे-जातीय विभाजन, धार्मिक विश्वास, परम्परा और नैतिकता राज्य की इस धारणा के क्षेत्र से बाहर होते हैं।

(स) तीसरे, हीगल ने ग्रीक दर्शन से प्रभावित होकर अपनी पुस्तक ‘Philosophy of Right’ में “राज्य’शब्द का प्रयोग एक विस्तृत अर्थ में किया है । इस अर्थ में हीगल ने’राज्य’शब्द का प्रयोग एक “नैतिक समुदाय’ के रूप में किया है । इसी राज्य को उसने नैतिक विचार की वास्तविकता कहा है। यह राज्य मानव जीवन की सम्पूर्णता का प्रतीक है जिसमें परिवार, नागरिक सामाजिक राजनीतिक राज्य सभी समाहित हैं। हीगल का यह नैतिक समुदाय सार्वभौमिक समुदाय है जिसमें परिवार, नागरिक समाज और राजनीतिक राज्य पल (moments) के समान हैं जो नैतिक समुदाय के ही क्षेत्र हैं तथा अपनी नैतिक शक्तियों द्वारा व्यक्तियों के जीवन को नियमित करते हैं।

(2) राज्य की उत्पत्ति तथा द्वनद्वात्मक सिद्धान्त – हीगल ने द्नद्द्ातमक पद्धति के आधार राज्य की उत्पत्ति की प्रक्रिया का विस्तार से विवेचन किया है। उसने राज्य की उत्पत्ति के समझौतावादी सिद्धान्त को अस्वीकार कर, उसे स्वाभाविक ऐतिहासिक विकास बताया है। अपने आध्यात्मिक द्नद्धवाद के आधार पर हीगल ने स्परष्ट किया है कि परिवार रूपी वाद’ और नागरिक -समाज रूपी ‘ प्रतिवाद’ के संघर्ष के फलस्वरूप ‘संवाद’ रूपी राज्य की उत्पत्ति हुई। यथा

(अ)राज्य के निर्माण के तत्त्व-हीगल के अनुसार राज्य का निर्माण दो प्रकार के त्वों से होता है(1) आत्म-तत्त्व या विश्वात्मा (जीस्ट) और (2) मानव। हीगल के मतानुसार विश्वात्मा आत्मज्ञान के अपने लक्ष्य तक पहुँचने के लिए विश्व में अनेक वस्तुओं का रूप धारण करती है। वह निर्जीव वस्तुओं, वनस्पतियों और जीवों के रूप से गुजरती हुई मानव का रूप धारण करती है । मानव आत्म -तत्तव या विश्वात्मा के शारीरिक और भौतिक विकास की चरम अभिव्यक्ति है, क्योंकि मनुष्य के बाद विश्वात्मा का शारीरिक और भौतिक विकास नहीं होता है। दूसरी तरफ मनुष्य अपने को पूर्ण बनाने का प्रयलল करता है । इस हेतु वह अन्य मनुष्यों के साथ मिलंकर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सामाजिक व्यवस्थाओं का निर्भाण करता है जिनका स्वाभाविक विकास ‘राज्य’ के रूप में होता है।

(ब)राज्य ‘परिवार’ और’नागरिक समाज’ के संघर्ष का परिणाम है -सामाजिक व्यवस्थाओं में परिवार सबसे प्राचीन व्यवस्था है। इसलिए हीगल राज्य की उत्पत्ति का परिवार से शुरू करता है । यथा परिवार ( वाद) हीगल की राज्य की उत्पत्ति की आध्यात्मिक द्न्द्रवाद की त्रयी में परिवार *वाद’ है। यह मनुष्य की ऐन्द्रिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है और सुरक्षा प्रदान करता है। यह पारस्परिक प्रेम के दूढ़ बन्धनों का परिणाम है। लेकिन परिवार छोटा होने के कारण मानव की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति करने में असमर्थ रहता है। इसलिए प्रतिवाद के रूप में ‘नागरिक समाज’ का उदय होता है। नागरिक समाज ( प्रतिवाद) नागरिक समाज ऐसे स्वतंत्र मनुष्यों का समूह होता है, जो केवल स्वहित के धागे से बँंधे होते हैं । इस समाज में व्यक्तयों के अधिकार और कर्तव्य निर्धारित कर दिये जाते हैं । इसमें व्यापार और उद्योग की सम्पूर्ण क्रया मानव आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक नवीन संगठन का रूप धारण कर लेती है । हीगल के मतानुसार नागरिक समाज के कार्यक्षेत्र के अन्तर्गत कृषि, वाणिज्य-व्यापार, शांति, सुरक्षा, न्याय, कानून, शिक्षा व संस्कृति आ जाते हैं। चूँकि यह समाज विभिन्न स्वतंत्र व्यक्तियों का समूह होता है जो प्रतिस्प्ध के कारण स्वतंत्र रहते हैं और उनमें परिवार की तरह किसी प्रकार की एकता नहीं होती । फलतः दोनों में संघर्ष चलता है। यह परिवार रूपी वाद का प्रतिवाद है। राज्य ( संवाद)-परिवार और नागरिक-समाज के परस्पर संघर्ष के कारण ‘संवाद’ के रूप में राज्य की उत्पत्ति होती है। संवाद के रूप में राज्य वाद तथा प्रतिवाद दोनों के श्रेष्ठतम तत्वों को सुरक्षित रखता है। यह न तो परिवार को समाप्त करता है और न ही समाज को, बल्कि यह दोनों में एकता तथा सामंजस्य स्थापित करता है। इस प्रकार द्वन्द्वात्मक विकास की चरम सीमा राज्य है और विकासवादी प्रक्रिया में राज्य से अधिक पूर्ण अन्य कोई वस्तु नहीं है। इसलिए हीगल ने कहा है कि आत्म-तत्त्व के विकास में जो स्थान व्यक्ति का है, इतिहास के विकास में वही स्थान राज्य का है । हीगल के अनुसार राज्य एक प्राकृतिक सावयव है और व्यक्ति उसके अवयव मात्र हैं यह निरंकृश, सर्वशक्तिमान और कभी ज्रुटि नहीं करने वाला है । यह पृथ्वी पर परमेश्वर का अवतार है। यह पृथ्वी पर अस्तित्वमान एक दैवीय विचार है ।

(3) राज्यं की विशेषताएँ ( हीगल के आदर्शवाद की विशेषताएँ)-होगल के राज्य की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

(i) राज्य एक प्राकृतिक जीव है- हीगल राज्य की उत्पत्ति के समझौतावादी सिद्धान्त को वीकार करता है और कहता है कि राज्य एक प्राकृतिक जीव है जिसकी उत्पत्ति कृत्रिम से नहीं बल्कि ऐतिहासिक विश्व प्रक्रिया से हुई है।

(ii) राज्य अपने नैतिक उ्ेश्यों की पूर्ति के साधनों के लिए नागरिक समाज निर्भर है- हीगल का राज्य सिद्धान्त राज्य तथा नागरिक समाज के सम्बन्ध के विशिष्ट स्वरूप पर आधारित है। यह सम्बन्ध विरोध का भी है और पारस्परिक निर्भरता का भी। होगल के अनुसार राज्य कोई ऐसी उपयोगितावादी संस्था नहीं है जो सार्वजनिक सेवाओं, विधि के प्रशासन, पुलिस कर्त्त्यों के पालन, औद्योगिक एवं आर्थिक हितों से सम्बन्धित कार्य करे। ये सारे कार्य नागरिक समाज के हैं। राज्य आवश्यकतानुसार इनका निर्देशन और विनियमन कर सकता है, लेकिन वह स्वयं इन काय्यों का सम्पादन नहीं करता है। नागरिक समाज बुद्धिमत्तापूर्ण पर्यवेक्षण और नैतिक महत्त्व के लिए राज्य पर निर्भर रहता है। राज्य अपने नैतिक उद्देश्यों की पूर्ति के साधनों के लिए नागरिक समाज पर निर्भर रहता है। इस प्रकार यद्यपि दोनों परस्पर निर्भर हैं , तथापि वे एक -दूसरे से भिन्न हैं । जहाँ नागरिक समाज में विवेकहीन प्रवृत्ति और आकस्मिक आवश्यकता की प्रधानता रहती है, वहाँ राज्य “कुछ ऐसे मान्य साध्यों, ज्ञात सिद्धान्तों और नियमों के अनुसार कार्य करता है, जो उसकी चेतना के सामने पूर्ण रूप से स्पष्ट रहते हैं।”

(iii) राज्य पूर्ण विवेक की अभिव्यक्ति है-हीगल के अनुसार राज्य पूर्ण विवेक की अभिव्यक्ति है । वह चेतना की शाश्वत और आवश्यक सत्ता है । हीगल के शब्दों में, “राज्य वर्तमान चेतना के रूप में एक दैवी इच्छा है जो संगठित संसार के रूप में अपना उद्घाटन करती है।” राज्य के बौद्धिक स्वरूप पर जोर देकर हीगल ने यह स्पष्ट कर दिया है कि राज्य रक्त- सम्बन्ध या भौतिक पदार्थ पर आधारित कोई संस्था नहीं है, बल्क विवेक पर आधारित एक आध्यात्मिक निकाय है।

(iv) राज्य एक दैवी सत्ता है – हीगल का मत है कि “” राज्य इस पृथ्वी पर’जीस्त’ की चरम अभिव्यक्ति है । ईश्वर ने अपनी दैवी इच्छा को प्रकट करने के लिए राज्य को अपना साधन बनाया है।” इस अर्थ में राज्य पृथ्वी पर परमात्मा का अवतार है । स्वयं भगवान है । हीगल के ही शब्दों में, “पृथ्वी पर विद्यमान राज्य एक दैवी विचार है।” यह “पृथ्वी पर ईश्वर का पदार्पण है”

(v) राज्य स्वयं साध्य है -हीगल का विचार है कि राज्य इस पृथ्वी पर जोस्ट को चरम अभिव्यक्ति है । जिस प्रकार मनुष्य से ऊपर जीस्ट का भौतिक विकास नहीं होता है, उसी प्रकार राज्य से ऊपर जीस्ट का आध्यात्मिक विकास संभव नहीं है। स्वयं हीगल के शब्दों में, “राज्य अपने आप में निरपेक्ष और निश्चित साध्य है।” 

(vi) राज्य नैतिक बंधनों से मुक्त है -हीगल का मत है कि राज्य स्वयं नैतिकता का निर्माता है। राज्य नैतिकता का साकार रूप है । उसकी यही नैतिक सम्पूर्णता उसे सभी मानव संस्थाओं में उच्चतभ स्थान प्रदान करती है । इसलिए हीगल का राज्य किसी भी नैतिक नियम या कानून से मर्यांदित नहीं है ।

(vi) राज्य अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता और अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों से बँधा हुआ नहीं है – हीगल का मत है कि राज्य अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता व अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों के बन्धनों से बँधा हुआ नहीं है। अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में उसका अपना कल्याण उसका सर्वोच्च कानून है । इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए राज्य सभी प्रकार के नैतिक बंधनों से मुक्त है। ग्रीन का राजनीतिक दशन को योगदान ग्रीन के राजनीतिक दर्शन के योगदान का अध्ययन निम्नालखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है

(1) उदारवाद और आदर्शवाद में समन्बय- ग्रीन ने एक ओर तो उदारवाद और आदर्शवाद को परिष्कृत किया, दूसरी ओर इन दोनों में समन्वय स्थापित किया । उदारवाद व्यक्ति की अनुवादी कल्पना प्रस्तुत करता है, जो व्यक्ति व समाज को अलग-अलग इकाइयाँ मानती हैं। आदर्शवाद समाज का सावयव रूप प्रतिपादित हुए व्यक्ति को समाज से विलीन कर देता है। ग्रीन ने इन दोनों विचारों को अपूर्ण एवं एकपक्षीय बताया। उसने इन दोनों विचारों का समन्वय करके व्यक्ति और समाज को आत्मनिर्भर माना है । वह इनको न तो एक -दूसरे से अलग करता है न एक -दूसरे में विलय करता है । उसने कहा कि व्यक्ति या समाज दोनों में से एक को पूर्णत: महत्वहीन नहीं बनाया जा सकता। बार्कर ने इसलिए ठोक ही कहा है, “ग्रीन एक कल्पनाशील आदर्शवादी और गम्भीर यथार्थवादी था।” मैक्सी के अनुसार, “ग्रीन को इस बात का श्रेय दिया जा सकता है कि उसने राज्य का दैवीकरण किये बिना और उसे निरपेक्ष अधिकारों के साथ जोड़े बिना ही उसका आदर्शीकरण कर दिया।””

(2) राज्य का आधार इच्छा-ग्रीन की एक महत्त्वपूर्ण देने उसके द्वारा प्रतिपादित राज्य की आधार सम्बन्धी धारणा है। उसका विचार है, “राज्य का वास्तविक आधार बल नहीं, वरन् इच्छा है।” ग्रीन के अनुसार, यदि राज्य का भय उत्पन्न कर अपनी आज्ञाओं का पालन करवाता है, तो वह राज्य कभी स्थायी नहीं हो सकता। व्यक्तिवारदी, साम्यवादी और अराजकतावादी राज्य को मात्र शक्ति का परिणाम मानते हैं किन्तु ग्रीन ने राज्य का आधार इच्छा माना है। ग्रीन द्वारा प्रतिपादित राज्य के आधार सम्बन्धी सिद्धान्त का राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान है।”राज्य का आधार इच्छा है बल नहीं, ” यह कहकर ग्रीन ने एक महत्त्वपूर्ण यद्यपि आशिक सत्य का तो प्रतिपादन किया ही है, इसके अतिरिक्त राज्य का एक भावी आदर्श भी प्स्तुत किया है।

(3) सीमित सम्प्रभुता का सिद्धान्त – प्रीन की एक देन उसके द्वारा प्रतिपादित सीमित सम्प्रभुता का सिद्धान्त है। प्रभुसत्ता के सम्बन्ध में उसने रूसो और ऑस्टिन की विचारधाराओं को परस्पर विरोधी न मानते हुए समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया है। ग्रीन राज्य की शक्ति पर आन्तरिक तथा बाहरी प्रतिबन्ध लगाकर सम्प्रभुता को सीमित करता है। उसने राज्य को साधन और व्यक्ति को साध्य माना है तथा राज्य की आन्तरिक शक्ति पर जन इच्छा एवं अधिकारों का प्रतिबन्ध लगाया है और बाहरी शक्ति पर अन्तर्राष्ट्रीय कानून एवं विश्वबन्धुत्व का प्रतिबन्ध लगाया है । उसने यह भी कहा है कि कुछ परिस्थितियों में राज्य का विरोध करने का अधिकार व्यक्ति को है ।

(4) स्वतंत्रता सम्बन्धी धारणा – ग्रीन की एक अत्यधिक महत्त्वपूर्ण देन उसकी स्वतंत्रता सम्बन्धी धारणा है। उसके अनुसार, स्वतन्त्रता न तो केवल हस्तक्षेष का अभाव मात्र है और न ही मनमानी करने की छूट। ग्रीन ने इस सत्य को प्रतिपादित किया कि स्वतन्त्रता का अर्थ नियन्त्रण या अनुशासन से मुक्ति नहीं है, वरन् इसका तात्पर्य करने योग्य कार्यों को करने की स्वतन्त्रता से है। वार्कर ने ग्रीन के इस विचार को इस प्रकार व्यक्त किया है, ” अच्छे कार्य करने की प्रेरणा देने वाली सद्-इच्छा के आदेशों का पालन करने की स्वतनत्रता ही सच्ची स्वतन्त्रता हो सकती है। ” इसके साथ ही ग्रीन ने भावात्मक या सकारात्मक स्वतन्त्रता का प्रतिपादन किया है जिसका तात्पर्य है कि राज्य के द्वारा व्यक्तियों को उनके व्यक्तित्व के विकास के लिए अधिकतम सुविधायें दी जानी चाहिए। यह सकारात्मक स्वतन्त्रता की धारणा ग्रीन की मौलिक देन है और वर्तमान में स्वतंत्रता के सम्बन्ध में ग्रीन की इसी धारणा को स्वीकार किया जाता है।

(5) राज्य का कार्यक्षेत्र सम्बन्धी सिद्वान्त-ग्रीन ने कहा है, “राज्य का कार्य नैतिक जीवन के मार्ग की बाधाओं को बाधित करना है; जैसे अज्ञान, अशिक्षा, दरिद्रिता, मद्यपान आदि।”” ग्रीन के अनुसार, राज्य के अन्य कार्य ऐसे हैं, जो व्यक्ति के नैतिक विकास के लिए आवश्यक और उपर्युक्त बाहरी दशाओं को उपलब्ध कराते हैं; जैसे- शिक्षा की व्यवस्था, स्वास्थ्यप्रद मकानों को निर्माण, जमींदारी प्रथा का अन्त आदि। राज्य की कार्य सम्बन्ध ग्रन की यह धारणा ऊपर से देखने पर नकारात्मक दिखाई देती है, किन्तु वास्तव में यह धारणा सकारात्मक है। ग्रीन ने अपने इन विचारों से राज्य का आधार नैतिक बना दिया तथा जन- कल्याणकारी राज्य की धारणा के विकास के लिए मारग्ग प्रशस्त कर दिया। उपसंहार-इस प्रकार ग्रीन ने उदारवाद और आदर्शवाद दोनों के दोष दूर करते हुए एक समन्वयकारी और सन्तुलित विचारधारा का प्रतिपादन किया। वेपर के शब्दों मं, “उसने उदारवाद को एक हित के बजाय एक विश्वास का रूप दिया है। उसने व्यक्तिवाद को नैतिक तथा सामाजिक एवं आदर्शवाद को सुसभ्य तथा सुरक्षित बनाया है। कम से कम अंग्रेज उसके कार्य को कम महत्वपूर्ण नहीं मानेंगे ” ग्रीन के विचार आज भी उतने ही सत्य हैं, जितने 100 वर्षों पहले थे।

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