हीगल के मतानुसार द्वनद्धवाद एक स्वतः उत्पन्न प्रक्रिया है। यह जगत के विकास का सिद्धान्त है तथा यह “आत्म-त्व’ के निरन्तर विकास की कहानी है। हीगल की द्वन्द्वाद की पद्धति का आधार है- अन्तविरोध । हीगल के संश्लेषणात्मक तर्कशास्त्र के अनुसार कोई भी वस्तु एक ही समय में ‘सत्य’ और ‘असत्य’ दोनों हो सकती है । इनके अन्तविरोध को विवेक दूर करता है और इस अन्तर्विरोध से ही विकास का मार्ग प्रशस्त होता है। हीगल का मानना है कि आत्म -तत्त्व या जगत् या मानवीय सभ्यता का विकास कभी भी एक सरल रेखा के समान नहीं होता है । इसमें निरन्तर होने वाले परिवर्तन का रूप चाहे कैसा भी हो, उसकी दिशा श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर की ओर ही होती है । विकास की इस प्रक्रिया में निम्नकोटि की वस्तुएँ उच्चकोटि की वस्तुओं में विकसित होकर पूर्णता प्राप्त करती हैं । इसी विकासवादी प्रक्रिया को हीगल ने द्नद्धात्म्क पद्धति कहा है। हीगल की द्वनद्वात्मक पन्द्धति का स्वरूप- हीगल ने ह्न्द्वात्त्रक की पद्धति को विचार के क्षेत्र में लागु किया है।
(1) वाद तथा प्रतिवाद-हीगल के अनुसार प्रत्येक विचार या वस्तु में पुरस्पर विरोधी तत्तव होते हैं । अपनी इसी आंतरिक विशेषता के कारण वह वस्तु गतिमान होती है और विचार प्रवाहमय होता है और अपने प्रवाह की विकास की अवस्था में उसमें अन्तर्निहित विरोधी तत्व का प्रकटीकरण होता है। हीगल ने वस्तु या विचार के इस मूल स्वरूप या मूल गति को ‘वाद’ (Thesis) कहा है और उससे उत्पन्न विरोधी अवस्था को ‘प्रतिवाद’ (Antithesis) कहा है। मतत्त्व के विकास की पूर्णावस्था से बहुत दूर होता है , इसलिए यह अपूर्ण है । इस चूँकि अपूर्णता के कारण ही एक दूसरी वस्तु प्रतिवाद के रूप में पैदा होती है।
(2) संवाद- ये दोनों ‘ वाद’ और ‘प्रतिवाद’ कुछ समय तक जीवित रहते हैं और चूँकि ये दोनों एक-दूसरे के विरोधी होते हैं, इसलिए इनमें संघर्ष होना स्वाभाविक है । इस संघर्ष के परिणामस्वरूप एक नई और तीसरी वस्तु का जन्म होता है, जिसे उसने ‘ संवाद’ (Snthesis)” कहा है। ‘संवाद’ में ‘वाद’ और ‘ प्रतिवाद’ दोनों के असत्य तत्वों को हटाकर सत्य तत्वों को आपना लिया जाता है। यह न वाद पर प्रतिवाद के विजय की पूर्ण स्थिति है और न प्रतिवाद पर वाद के विजय की। इसमें दोनों की सत्यता का समावेश होता है। इसलिए ‘संवाद’, “वाद’ और ‘ प्रतिवाद ‘ दोनों से श्रेष्ठतर होता है । इस प्रकार हीगल का द्न्द्वाद इस बात पर जोर देता है कि कोई भी वस्तु जो सत्य होती है, उसका कभी विनाश नहीं हो सकता। वह सतत् नये और अधिक पूर्णरूप में अपने को अभिव्यक्त करती जाती है। दूसरे, विवेक में विरोधाभास को दूर करने की पूर्ण क्षमता होती है। इस प्रकार हीगल की द्वन्द्वात्मक पद्धति में तीन चरण हैं (1) वाद, (i1) प्रतिवाद और (ii1) संवाद । यह पद्धति एक स्वत: उत्पन्न प्रक्रिया है तथा निरन्तर विकास की कहानी है। इसके निरन्तर विकास के मूल में जो तत्व हैं, वे हैंअन्त्विरोध, गति, संघर्ष और गुणोत्तर विकास ।
(3) प्रक्रिया की निरन्तरता- हीगल का मत है कि संवाद के पश्चात् पुनः एक ऐसी स्थिति आती है कि ‘संवाद'”वाद’ का रूप धारण कर लेता है और इसके विरुद्ध एक नया प्रतिवाद उत्पन होता है। फलस्वरूप पुन: संघर्ष होता है और पुन: “संवाद’ का जन्म होता है। इस प्रकार “वाद’, ‘प्रतिवाद’ और ‘संवाद’ की यह प्रक्रिया नितन्तर चलती रहती है जिसके फलस्वरूप आत्मतत्व (Spirit) निम्न स्तर से उच्च स्तर की ओर बढ़ता जाता है। यह प्रक्रिया तब तक चलत रहती है, जब तक आत्म-तत्त्व अपने लक्ष्य तक पहुँच नहीं जाता अर्थात् अपना पूर्ण ज्ञान प्राप्त नहीं कर लेता। द्न्द्ात्मक रूप से आत्मतत्त्व के इसी विकास के साथ-साथ मानव इतिहास का विकास होता चला जाता है । हीगल ने इसी द्वन्द्वात्म्क प्रणाली के आधार पर कहा है कि परिवार रूपी ‘वाद’ एवं नागरिक समाज रूपी ‘ प्रतिवाद’ के संघर्ष के फलस्वरूप ‘संवाद’ के रूप में राज्य की उत्पत्ति हुई। उसके अनुसार यूनानी राज्य ‘वाद’ थे, ‘धर्म राज्य’उसके प्रतिवाद और जर्मन राष्ट्रीय राज्य उस “संवाद’ होगा। द्वनद्धात्म्क पद्धति की विशेषताएँ –
हीगल की द्नद्दात्मक पद्धति की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
(1) निरन्तर प्रगतिमूलक-हीगल द्वारा प्रतिपादित द्वन्द्वाद की प्रणाली स्वतः प्रेरित और वत: संचालित प्रक्रिया है और वह निरन्तर है और वह निरन्तर नि्न स्तर से उच्च स्तर की ओर प्रगतिशील है।
(2) इतिहास आत्म-तत्त्व ( जीस्ट ) के निरन्तर विकास की कहानी-हीगल के अनुसार इतिहास आत्म-तत्त्व के निरन्तर विकास की कहानी है। इस सम्बन्ध में उसका विचार था कि मानव प्रगति को निर्धरित करने वाला तत्त्व विश्वात्मा का विवेक है। यह विवेकपूर्ण विश्वात्मा अपने विकास के लिए विभिन्न अवस्थाओं को धारण करती है और लक्ष्य सिद्धि तक उसे निरन्तर आगे बढ़ाती है। यह व्यवस्थित मानव प्रगति द्वनद्वात्मक पद्धति के माध्यम से ही संभव है।
(3) चेतना या विचार की प्रधानता-हीगल की दनद्धात्मक प्रक्रिया में ‘चेतना’ या “विचार’ को प्रमुख महत्व दिया गया है । विचार या चेतना सुक्ष्म स्तर का द्योतक है और पदार्थ स्थूल स्तर का। हीगल का मत है कि द्न्द्वात्मक विकास की प्रक्रिया स्थूल स्तर से सूक्ष्म स्तर की ओर होती है और अन्तिम स्तर पर निरपेक्ष ज्ञान है जो सुक्षमतम है । इस निरपेक्ष विचार को हीगल ने ‘थॉट’ (Thought) कहा है। यह थॉट ही पदार्थ की स्थिति को नियंत्रित करता है।
(4) अन्तर्विरोध सत्य की प्राप्ति के मार्ग में सहायक -हीगल के अनुसार वाद और प्रतिवाद में जो अन्तर्विरोधी शक्ति छिपी होती है, उसी से विकास होता है ।
(5) सत्य वस्तु का कभी विनाश नहीं – हीगल अपनी द्वन्द्धात्मक प्रणाली में इस बात पर जोर देता है कि कोई भी वस्तु जो सत्य होती है, उसका कभी विनाश नहीं हो सकता है और वह निरन्तर और अधिक पूर्णता में अपने को अभिव्यक्त करती जाती है।
हीगल की द्वद्धात्मक पद्धति की आलोचना
हीगल की दुन्द्वात्म्क प्रणाली की निम्नलिखित कट् आलोचनाएँ की गयी हैं-
(1) द्नद्धवाद तर्क की नई पद्धति नहीं-वेपर ने लिखा है कि हीगल का द्न्द्वाद तर्क की कोई नई पद्धति नहीं है । कोई भी वस्तु जो अनिश्चित रूप से दूसरी से भिन्न प्रतीत होती है, हीगल ने उसे अन्तर्विरोधात्मक तर्क के सिद्धान्त का उदाहरण मान लिया है, जबकि इस तरह की भिन्नता का तार्किक विरोधाभास से कोई सम्बन्ध नहीं है । इनकी व्याख्या हीगल के अन्तर्विरोध के सिद्धान्त के बिना भी की जा सकती है ।
(2) अस्पष्टता -सेबाइन ने लिखा है कि हीगल ने ‘ विचार’ तथा ‘ अन्तर्विरोध’ जैसे अनेक पारिभाषिक शब्दों का बड़ी अस्पष्टता के साथ प्रयोग किया है । इस प्रकार अपने द्न्दवात्मक पद्धति के द्वारा विभिन्न पारिभाषिक शब्दों का मनमाने ढंग से प्रयोग किया है और हीगल ने इसके द्वारा वही परिणाम निकाला है जो कि वह इसके बिना पहले ही निकाल चुका है
(3) वाद, प्रतिवाद और संवाद की त्रयी भंतिपूर्ण – हीगल ने यह भी स्पष्ट नहीं किया कि किसी वस्तु की गति वाद, प्रतिवाद और संवाद के रूप में ही क्यों होगी ? वास्तविकता के चार या पाँच या सात स्वरूप क्यों नहीं हो सकते ? अतएव विश्व की अनन्त जटिलता को वाद, प्रतिवाद और संवाद के रूप में प्रकट करना हीगल की रोमांसवादी कल्पना की उपज हो सकती है। यह विश्वसनीय नहीं है।
(4) नैतिक निर्णय, ऐतिहासिक विकासवाद तथा तर्क की खिचड़ी-सेबाइन ने लिखा है कि हीगल का द्नद्धवाद वास्तव में एक ही साथ ऐतिहासिक भविष्यवाणी, ऐतिहासिक यथार्थवाद, नैतिक उद्बोधन, भावुक आदर्शवाद और धार्मिक रहस्यवाद की विचित्र खिचड़ी है।
(5) वैज्ञानिक परिशुद्धता का पूर्ण अभाव- हीगल की दुनद्धात्मक पद्धति वैज्ञानिकता का पूर्ण अभाव है । इस पद्धति के अनुसार कोई भी व्याख्याता आपनी इच्छा के अनुसार किसी भी ऐतिहासिक घटना का वाद, प्रतिवाद और संवा के आधार पर अन्वेषण कर सकता है। दुसरे शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि हीगल की द्न्द्वात्म्क पद्धति वस्तुनिष्ठ नहीं , आत्मनिष्ट हैं, क्योंकि इतिहास के तथ्यों को तोड़-मरोड़कर वाद, प्रतिवाद और संवाद के रूप में उपस्थित किया जा सेकता है।-
निष्कर्ष -उपर्यक्त् विवेचन से स्पष्ट होता है कि हीगल की द्वन्द्वात्मक प्रणाली में अनेक त्रुटियाँ हैं, इसके बावजूद इसके महत्त्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है।