सन्त आगस्टाइन के राज्य सम्बन्धी विचार- ऑगस्टाइन ने राज्य की उत्पति को मनुष्य की समूह प्रवृत्ति का परिणाम कहा है । इस दृष्टि से वह अरस्तूवादी है । दूसरे स्थान पर वह कहता है कि “राज्य मनुष्य के पापों का परिणाम है । उसकी इस विचारधारा पर ईसाइयत का प्रभाव है । इस प्रकार ऑगस्टाइन ने अपने राज्य सम्बन्धी विचारों में अरस्तू और ईसाई धर्म दोनों की विचारधाराओं को मिला दिया है । ईसाइयत के प्रभाव में वह कहता है कि “राज्य दैवी उत्पत्ति है और राज्य की स्थापना मनुष्य को उसके पापों से मुक्ति दिलाने के लिए हुई है। ” इसके साथ ही साथ वह यह भी कहता है कि राज्य दैवी उत्पत्ति होते हुए भी शैतान के साम्राज्य का प्रतिनिधि है। शांति, व्यवस्था तथा अच्छे जीवन की स्थापना के लिए राज्य की आज्ञाओं का पालन किया जाना चाहिए, लेकिन यदि राज्य की आज्ञाएँ धर्म तथा नैतिकता के विरोध में हैं तो उनका पालन नहीं होना चाहिए । इसलिए राज्य का स्वरूप ईसाइयत का होना चाहिए।
सन्त आँगस्टाइन के चर्च सम्बन्धी विचार-सन्त ऑगस्टाइन का मत है कि ईश्वर के नगर में प्रवेश पाने के लिए चर्च इस लोक में एक ऐसा प्रत्यक्ष अभिकरण है जो मनुष्य को वहाँ तक ले जा सकेिगा। चर्च दैवी व्यवस्था का ही एक अंग है। ऑँगस्टाइन ने समस्त मानव इतिहास को दैवी मुक्ति सम्बन्धी योजना का भव्य फैलाव कहा है जिसमें चर्च निर्णायक भूमिका अदा करता है । उसकी दृष्टि में चर्च के माध्यम से ही मानवता को जोड़ा जा सकता है । उसने चर्च को एक विश्वव्यापी संगठन के रूप में देखा है तथा चर्च की प्रस्तुति को मानव इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण मोड़ बताया है ।
उसकी दृष्टि में मनुष्य के आध्यात्मिक हित तथा मोक्ष का सम्बन्ध चर्च से है । चर्च पादरियों के अध्ययन एवं अध्यापन का विषय है। वह राज्य को केवल शान्ति, व्यवस्था, नागारिक प्रशासन तथा न्याय जैसे लौकिक विषयों तक सीमित रखना चाहता है । उसने चर्च को दिव्य नगर और राज्य का पार्थिव नगर कहा है। वह दोनों क्षेत्र की सीमाओं को स्पष्ट तथा पृथक रखने के पक्ष में है।