राज्य और व्यक्ति के पारस्परिक सम्बन्ध
हीगल के राज्य और व्यक्ति के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद
राज्य और व्यक्ति के पारस्परिक सम्बन्ध
राज्य और व्यक्ति के पारस्परिक सम्बन्ध
हीगल के राज्य और व्यक्ति के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। यथा-
(अ) कुछ विद्वानों ने हीगल के राज्य सम्बन्धी विचारों की कटु आलोचना करते हुए यह कहा है कि हीगल का राज्य सर्वसत्ताधिकारवादी है, वह उदारवाद का विरोधी है। कार्ल पॉपर, सिडनी, हूँक तथा विलियम इबेन्स्टीन जैसे विद्वानों ने उसे सर्वसत्ताधिकारवादी कहा है । उन्होंने कहा है कि हीगल ने व्यक्ति को राज्य के अधीन कर दिया है और उसे राज्य का केवल साधन वना दिया है। इस सम्बन्ध में इन विद्वानों ने निम्न तर्क दिये हैं-
(1) होगल ने जन-सम्प्रभुता के सिद्धान्त को अस्वीकार किया है और जनमत की उपेक्षा की है।
(2) उसने वैयक्तिक अधिकारों की पवित्रता की नकार कर सिर्फ व्यक्तियों के कर्त्तव्य पर
(3) उसने जातीयता, राष्ट्रवाद, नेतृत्व- सिद्धान्त, सहमति के बदले सत्ता पर आधारित शासन, शक्ति और युद्ध का गुणगान किया है और राज्य की वेर्दी पर व्यक्ति का बलिदान कर दिया
(4) हीगल ने राज्य और समाज को एक-दूसरे से भिन्न मान लिया है और इस आधार पर राज्य की स्वेच्छाचारिता का, निरंकुशता का समर्थन किया है।
(ब) दूसरी तरफ प्लामेनाज, पेल्कजिन्सकी, मेकडॉनाल्ड वी. पी. वर्मा, सेबाइन जैसे विद्वानों का मत है कि होगल का राज्य सर्वशक्तिमान और सत्तावादी अवश्य है पर सर्वस्तधिकारवादी नहीं । इस मत के पक्ष में इन विद्धानों ने निम्नलिखित तर्क दिये हैं
(1) हीगल के राज्य में प्रत्येक नागरिक को अपनी इच्छा के अनुसार पेशा चुनने की स्वतंत्रता है।
(2) हीगल ने अपने राजनोतिक सिद्धात में संवैधानिक कानून की सवोंच्चता को स्वीकार किया। उसने यद्यपि राजा को सर्वोच्च पदाधिकारी माना है तथापि उसका राजा भी विधि के अनुसार शासन करता है।
(3) हीगल के समस्त राजनीतिक दर्शन के ढाँचे में राज्य वस्तुनिष्ठ मस्तिष्क का प्रतीक है, पूर्ण मस्तिष्क का नहीं। पूर्ण मस्तिष्क वस्तुनिष्ठ से श्रेष्ठ होता है और उसकी अभिव्यक्ति कला, धर्म और दर्शन में होती है । इसलिए कला, धर्म और दर्शन राज्य के क्षत्र से बाहर है।
(4) उसने जूरी द्वारा मुकदमे की सुनवाई, स्थानीय स्वायत्त-शासन, समाचार पत्रों की आंशिक स्वतंत्रता और राज्य एवं चर्च की पृथक्ृता का समर्थन किया है ।
॥. हीगल के स्वतंत्रता सम्बन्धी विचार-
हीगल के स्वतंत्रता सम्बन्धी विचारों का मूल-आधार व्यक्ति की स्वतंत्रता और राज्य की सत्ता के मध्य समन्वय स्थापित करना है। हीगल स्वतंत्रता को आत्म-तत्त् का सार मानता है। का विकास होने पर ही स्वतंत्रता का विकास होता है । इसलिए सची स्वत्रता विशुद्ध विवेक द्वारा प्रेरित होकर कार्य करने में निहित है। स्वतंत्रता का आधार परमार्थ है। स्वतंत्रता की प्राप्ति कर्त्त्यपालन में है, न कि अधिकारों के उपभोग में तथा राज्य की आज्ञाओं को पूर्ण रूप से करने में ही स्वतंत्रता है । वेपर के शब्दों में, “जो नागरिक पूर्ण रूप से राज्य की आज्ञाओं का पालन करता है, वही पूर्ण रूप से स्वतंत्र है। “
इस प्रकार हीगल ने अपने स्वतंत्रता सम्बन्धी विचारों में व्यक्ति को राज्य के पूर्ण अधीन करके भी उसे पूर्ण स्वतंत्र कर व्यक्ति और राज्य के मध्य समन्वय स्थापित किया है ।
- हीगल के सरकार या शासन सम्ब्धी विचार-
शासन व्यवस्था के क्षेत्र में हीगल लोकर्तंत्र का विरोधी तथा संवैधानिक राजतंत्र का समर्थक था। अपनी द्वद्धात्मक पड्धरति के आधार पर उसने बताया कि प्राचीनकाल में पूर्वी राज्यों (चीन भारत) में जो निरंकुश राजतंत्र राज्य थे वह ‘वाद’ की स्थिति थी। युनान और रोम में वर्गतंत्र लोकतंत्र का मिश्रेण था। वह प्रतिवाद की स्थिति थी। अर्थात् वर्गतंत्रीय तथा लोकतंत्रीय शासन व्यवस्थाएँ वाद रूपी निरंकुश राजतंत्र राज्यों की ‘ प्रतिवाद्’ थीं। इन दोनों के सत्य अंशों को मिलाकर ‘संवैधानिक राजतंत्र’ की शासन व्यवस्था का विकास हुआ । यह ‘संवाद’ की स्थिति है। संवैधानिक राजतंत्र – इस प्रकार स्पष्ट होता है कि शासन व्यवस्था के क्षेत्र में हीगल का आदर्श ‘ संवैधानिक राजतंत्र’ है । उसका यह आदर्श संवैधानिक राजतंत्र प्रशिया का राजतंत्र था, जिसमें राजा मंत्रियों के परामर्श के अनुसार तो कार्य करता था, किन्तु मंत्रियों की नियुक्ति और पदच्युति राजा की इच्छा पर निर्भर करती थी, व्यवस्थापिका में बहमत पर नहीं । इसके साथ ही साथ इसमें राजा को प्रशासकीय तथा विधायी शक्तियाँ प्राप्त थीं। संविधान-हीगल का संविधान राजा, कार्यपालिका और विधायिका का द्वन्द्वात्मक संयोग है। उसके अनुसार विधायिका में वैधानिक शक्ति है, वह विशिष्ट व्यक्तियों की संस्था है। कार्यपालिका सार्वभौमिक संस्था है और राजा वैयक्तिकता का प्रतीक है । इन तीनों द्वन्द्ात्मक समन्वय से संविधान का निर्माण होता है जो सरकार के एक अंग से अधिक और वास्तविक होता है। सरकार के अंग -हीगल ने सरकार के तीन अंगों का उल्लेख किया है ।
ये अंग हैं- (1) विधायिका, (2) कार्यपालिका तथा (3) सम्राट या राजा।
(1) विधायिका-विधायिका ऐसे विशिष्ट व्यक्तियों की संस्था है, जिन्हें हर प्रकार के विधायिका के दो सदनों का पक्ष लिया है उच्च सदन और निम्न सदन । उच्च सदन में वंशानुगत समाज व लोगों में विशिष्ट स्थान प्राप्त है। यह अनेक एस्टेट्स (EStates) की सभा है। हीगल ने क्रम से जर्मींदारों का प्रतिनिधित्व होता है। इस प्रकार उच्च सदन ब्रिटिश लार्ड सभा की भौति कुलीनतंत्रीय है। हीगल के निम्न सदन में निगमों तथा अन्य व्यवसायों द्वारा निर्वाचित व्यापारी वर्ग का प्रतिनिधित्व होता है। इस प्रकार हीगल की सरकार में निम्न सदन का आधार निर्वाचन है, लेकिन उसने मताधिकार बहुुत थोड़े से ही शिक्षित और धनी व्यक्तियों को ही प्रदान किया है; वह वयस्क मताधिकार बहुत थोड़े से ही नहीं था। इसलिए वह प्रादेशिक प्रतिनिधित्व के विरुद्ध था। लंकास्टर ने लिखा है कि हीगल की यह व्यवस्था गध्य युगीन ब्रिटिश ‘लोक सदन’ (हाउस ऑफ कॉमन्स) से मिलती-जुलती है । मध्य युग में ब्रिटिश निम्न सदन में नगरों के व्यापारी, अन्य नगरवासी तथा जिला व देहातों में रहने वाले नाइट (Knight) शामिल होते थे। हीगल की मान्यता है कि राजा और मंत्री को भी विधायिका की कार्यवाही में भाग लेना चाहिए क्योंकि विधायिका में मंत्री को कर्मचारी वर्ग का प्रतिनिधित्व करना चांहिए। लेकिन राजा व मंत्री विधानमण्डल के प्रति उत्तरदायी नहीं होने चाहिए।
हीगल के अनुसार विधायिका का कार्य केवल मंत्रियों को सलाह देना और सामान्य नियमों का निर्माण करना है, कानून की रचना करना नहीं। इस प्रकार हीगल ने विधायिका को कानून निर्म्ाण करने से वंचित किया है। इसका कारण यह है कि उसका विश्वास है कि विधायिका के सदस्यों में कानूनों की रचना करने की योग्यता नहीं होती ।
(2) कार्यपालिका – हीगल की कार्यप्रणाली सरकारी कर्मचारियों द्वारा निर्मित एक स्थायी तथा तटस्थ नागरिक सेवा है। इसके अन्तर्गत उच्च प्रशासनिक अधिकारी, अधीनस्थ कर्मचारी तथा न्यायिक पदाधिकारी आते हैं । इस प्रकार हीगल न्यायपालिका को कार्यपालिका का ही अंग मानता है। कार्यपालिका का कार्य सार्वजनिक इच्छा के अनुकूल नीति का लागू करना है। सर का अधिकतर कार्य इसी अंग द्वारा होता है । इसलिए हीगल ने इसे सर्वाधिक महत्त्व दिया है। उसका मत हैं कि यह वर्ग अपने जन्म और प्रशिक्षण से शासन करने के योग्य होता है । इसको परम्परा से ही शासन का अनुभव होता है तथा यह वर्ग व्यक्तिगत तथा सामाजिक हितों के प्रति निष्पक्ष दृष्टिकोण अपनाता है । इसलिए यह सम्पूर्ण सामाजिक हितों का संरक्षक होता हैं। इस प्रकार हीगल की कार्यपालिका समाज के सभी वर्गों, निगमों और संगठनों के बीच समन्वय स्थापित कर जनता के हितों का संरक्षण करती है।
(3) राजा तथा संप्रभु–हीगल की सरकार का तीसरा अंग राजा या क्राउन है । राजा राज्य के व्यक्तित्व का मूर्त रूप है; राज्य की एकता का प्रतीक है तथा संप्रभ् है। हीगल के अनुसार संप्रभुता राज्य के वैधानिक व्यक्तित्व में निवास करती है और वैधानिक व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति एक व्यक्ति के रूप में होनी चाहिए और वह व्यक्ति राजा ही हो सकता है । इस प्रकार हीगल वैधानिक रूप से राजा को ही संप्रभु मानता है। राजा औपचारिक निर्णय की प्रक्रिया में सर्वोच्च हे । उसे सरकार के समस्त कार्यों के विषय में अन्तिम निण्णय देने का अधिकार है। अतः उसका प्रमुख कार्य नीति -निर्माण करना है और उसका दूसरा कार्य विध्धायिका तथा कार्यपालिका पर निर्यंत्रण रखकर राज्य में एकता व सामंजस्य स्थापित करना है । सेबाइन ने लिखा है कि हीगल के राजा को जो भी स्थिति प्राप्त है, वह राज्य के अध्यक्ष की अपनी वैधानिक स्थिति के कारण प्राप्त है । इस प्रकार उसने वैधानिक राजतंत्र के सिद्धान्त का प्रतिपादन कर राजा की निरंकुशता को अस्वीकार कर दिया है।
- हीगल के युद्ध सम्बन्धी विचार-
हीगल के युडदध सम्बन्धी विचारों को मोटे रूप से दो भागों में विभाजित किया जाता ह () राज्य और व्यक्ति के सम्बन्ध में युद्ध की प्रासंगिकता- होगल की मान्यता है कि युद्ध प्रत्येक नागरिक को इस बात का ज्ञान कराता है कि युद्ध का सामाजिक ध्वंस से रक्षा एवं उसके परिवार व सम्पत्ति की रक्षा के लिए उसे राज्य की आवश्यकता है अर्थात् उस्रका अस्तित्व राज्य के अस्तित्व पर ही टिका है । दूसरे, युद्ध प्रत्येक व्यक्ति को अपने स्वार्थ त्यागकर राज्य की रक्षा के लिए प्रेरित करता है । तीसरे, युद्ध के द्वारा मनुष्य को अपने जीवन की नश्वरता का बोध होता है। चौथे, निरन्तर शान्ति भ्रष्टाचार फैलाती है इसलिए भ्रष्टांचार को रोकने तथा व्यक्ति को आध्यात्मिक व नैतिक पतन से बचाने के लिए युद्ध आवश्यक है । पाँचें, युद्ध में सफलता से गृह-कलह समाप्त होता है और राज्य की आंतरिक शक्ति सुदृढ होती है। इससे हीगल यह स्पष्ट करता है कि राज्य और व्यक्ति के सम्बन्धों में युद्ध प्रासंगिक है।
(i) अन्तर्राष्ट्रय सम्बन्थों के क्षेत्र में युद्ध की भूमिका – होगल ने अन्तराष्ट्रीय सम्बन्थों के क्षेत्र में भी युद्ध के महत्त्व को निम्न प्रकार स्पष्ट किया है-
(अ) हीगल की मान्यता है कि जब राज्यों में पारस्परिक मतभेद होता है और उनमें सामंजस्य स्थापित नहीं हो पाता, तो विवाद का समाधान केवल युद्ध के द्वारा ही संभव है। इस प्रकार शांति की स्थापना के लिए युद्ध का आश्रय लिया जाता है। यहाँ युद्ध से हीगल का तात्पर्य सीमित युद्ध से है।
(ब) हीगल के मतान्सार युद्ध के द्वारा मानव सभ्यता की प्रगति होती है। अस्त्र- शस्त्रों का विकास प्रगति का ही द्योतक है, जिसका मूलाधार युद्ध है। हीगल की मान्यता है कि संघर्ष अर्थात् युद्ध के फलस्वरूप ही संवाद के रूप में श्रेष्ठतर विचारों का प्राद्रभांव होता है। युद्ध में पुराने राष्ट्रो के पतन और नये राष्ट्रों के अभ्यूदय के माध्यम से प्रगति की यह प्रक्रिया जारी रहती है।
(स) राष्ट्रीय राज्य दुसरे राज्यों के साथ संवर्ष के द्वारा दैवोय इच्छा के अनुरूप मार्ग अपनाकर ही अपनी पूर्णता के लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है । इस प्रकार युद्ध विश्वात्मा की अभिव्यक्ति के लिए भी आवश्यक है। युद्ध विश्वात्मा की प्रगति का इतिहास है । युद्ध में सफलता ही युद्ध की सार्थकता सिद्ध करती है और इस बात को प्रमाणित करती है कि विजयी देश पराजित देश की अपेक्षा विश्व-आत्मा का अधिक वास्तविक मूर्त रूप है। इस प्रकार हीगल अन्तर्राष्ट्रीय कानून तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था का समर्थक नहीं था। अन्तर्राष्ट्रीयता में उसका विश्वास नहीं था । इसलिए वह राषट्रीय राज्य का प्रशंसक व उपासक था और युद्ध को विकास के लिए वह आवश्यक मानता था। हीगल के आदर्शवादी राजनीतिक विचारों की आलोचनाएँ
हीगल के आदर्शवादी राजनीतिक विचारों की कुछ प्रमुख आलोचनाएँ इस प्रकार हैं-
(1) राज्य और समाज में अन्तर नहीं करता – हीगल ने राज्य और समाज में अन्तर नहीं किया है । उसने समाज को राज्य में ही समाविष्ट कर राज्य की निरंकुशता को बढ़ावा दिया है। हीगल की राज्य और समाज को एक मानना एक बहुत बड़ी त्रुटिे है।
(2) युद्ध तथा अन्तर्राष्ट्रीयता सम्बन्धी विचार भयंकर हैं – हीगल ने युद्ध को मानव सभ्यता तथा राज्य के विकास के लिए आवश्यक माना है । सेबाइन तथा लंकास्टर जैसे विद्वानों का मत है कि हीगल ने राज्य को इतना आध्यात्मिक बना दिया है कि वह नैतिक बन्धनों से मुक्त हो गया है। इस प्रकार नैतिक बन्धनों से मुक्त कर हीगल ने राज्य को अन्तराष्ट्रीय क्षेत्र में स्वतंत्र आचरण की छृट दे दी है। अन्तराष्ट्रीय कानून और अन्तराष्ट्रीय नैतिकता के बन्धन से उसे मुक्त कर हीगल ने अराजकता को बढ़ावा दिया है । इससे विश्व शान्ति खतरे में पड़ सकती है।
(3) उसका स्वतंत्रता का सिद्धान्त वास्तव में परतंत्रता का सिद्धान्त है-हीगल की स्वतंत्रता का आशय है कि व्यक्ति राज्य के पराधीन रहकर उसके कानूनों का पालन करके ही स्वतंत्रता का उपभोग कर सकता है। इस प्रकार उसकी स्वतंत्रता राज्य की पराधीनता का सूप धारण करे लेती है।
(4) संप्रभुता की धारणा अस्पष्ट तथा दुबोध-हीगल की संप्रभुता की धारणा अस्पष्ट तथा दुर्वोध है । वह संप्रभु के अधिकारों को स्पष्ट नहीं करती है । एक तरफ हीगल संप्रभु या राजा का कार्य कानून का निर्माण करना बताता है और दूसरी तरफ वह यह भी कहता है कि राजा किसी कानून पर सिर्फ अपनी सहमति ही प्रकट करता है। इससे यह स्पष्टे नहीं हो पाता है कि होगल का राजा वास्तविक संप्रभु है या औपचारिक संप्रभु मात्र है।
(5) हीगल के दर्शन ने राष्ट्रीय और जातीय अहंकार को प्रोत्साहन दिया है- हीगल ने तत्कालीन राजनीतिक व्यवस्था को आदर्श घोषित कर उसे ‘विश्वात्मा की अभिव्यक्ति का माध्यम’ बतलाया है । हीगल की इस धारणा ने जर्मन जनता में राष्ट्रीय एवं जातीय अहंकार की भावना का विकास किया और वह अपनी श्रेष्टता सिद्ध करने के लिए युद्धोन्मादी होकर निरंकुश तथा बर्वर हो गया। इस प्रकार हीगल ने जिस जर्मन राष्ट्रीय और जातीय अहंकार को जन्म दिया, उसके दुष्परिणाम समस्त विश्व को भुगतने पड़े हैं।
(6) रूढ़िवादी विचारधारा-हीगल की राजनीतिक विचारधारा अत्यधिक रूढिवादी है क्योंकि उसने सभी वास्तविक वस्तुओं को आदर्श का रूप देकर अपनी व्याख्या में यह अन्तिम निष्कर्ष निकाला है कि तत्कालीन जर्मन व्यवस्था ही सर्वोत्कृष्ट और आदर्श है । इस प्रकार विश्व इतिहास की व्याख्या में उसका अन्तिम चरम राष्ट्रीय राज्य है। इस प्रकार राष्ट्रीय राज्य सम्बन्धी उसकी विचारधारा रूढ़िवादी बन गयी है।