माक्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद की व्याख्या

माक्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद की व्याख्या

माक्स ने इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या के अन्त्गत आर्थिक व भौतिक तत्वों को प्रमुखता दी है । माक्स के अनुसार मानव इतिहास को रूपरेखा को केवल भौतिक परिस्थितियाँ ही निर्धारित करती हैं वे आर्थिक हैं, सांस्कृतिक या राजनीतिक नहीं । इस प्रकार आर्थिक तत्व ही समस्त बातों का निर्धारण करते हैं । आर्थिक तत्व से माक्स का अभिप्राय उत्पादन तथा वितरण पद्धति से है । स्वयं माक्स के अनुसार, “जीवन के भौतिक साधनों के उत्पादन की पद्धति सामाजिक, राजनीतिक तथा बौद्धिक जीवन की सम्पूर्ण प्रक्रिया को निर्धारित करती है । मनुष्य की चेतना उसके अस्तित्व को निर्धारित करती है।”माक्स का विचार है कि मानवीय क्रियाएँ नैतिकता, धर्म या राष्ट्रीयता से नहीं बल्कि आर्थिक तत्वों से प्रभावित होती हैं।

माक्स ने इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या के अन्तर्गत मानव समाज की छ: अवस्थाओं का उल्लेख किया है-

(1) आदिम साम्यवादी अवस्था – यह सामाजिक विकास की पहली अवस्था है । इसमें उत्पादन के साधन तथा तकनीक बहुत सरल थी। उत्पादन के साधन (औजार या यंत्र) पत्थर के औजार व धनुष आदि थे। मनुष्य झुण्ड में रहते थे और सामूहिक प्रयत्न द्वारा भोजन सामग्री शिकार द्वारा एकत्र करते थे। अतः इस आदिम साम्यवादी अवस्था में उत्पादन के साधन और उत्पादन ( भोजन सामग्री) पर सामूहिक स्वामित्व था। निजी सम्पत्ति के अभाव के कारण कोई वर्ग नहीं था, रान्य एव स्थायी विवाह सम्बन्ध (परिवार) नहीं थे।

(2) दास अवस्था- इस युग में धीरे-धीरे कृषि और पशुपालन प्रथा का प्रारम्भ हुआ कुछ लोगों ने भूमि पर अपना अधिकार कर लिया । जिन लोगों के पास भूमि नहीं थी उनको भू- स्वामियों ने अपना दास बनाकर उनसे बलपूर्वक काम लेना प्रारम्भ कर दिया । समाज स्वामी और दास दो वर्गों में विभाजित हो गया । एक वर्ग ने दूसरे वर्ग का शोषण करना आरम्भ कर दिया।

(3) सामन्तवाद का युग-इस युग में भूमि के स्वामी बड़े-बड़े जागीरदार होते थे और दासों के स्थान पर किसान भूमि को जोतते थे परन्तु वे जमीनों के मालिक नहीं समझे जाते थे और पूर्णतया सामन्तों के अधीन होते थे।

(4) पूँजीवादी युग – औद्योगिक क्रान्ति के बाद यूरोप में पूँजीवादी युग का प्रारम्भ हुआ। इस युग में बड़े- बड़े कारखानों की स्थापना हुई जिनके स्वामी पुँजीवादी कहलाते हैं । उनमें लाखों मजदूर काम करते हैं जिनको पूँजीपति श्रम की अपेक्षा कम वेतन देते थे। इससे पूँजीपतियों को बहुत लाभ होने लगा तथा मजदूरों की स्थिति गरीब और अधिक गरीब होने लगी । इस प्रकार पूँजीपतियों द्वारा श्रमिकों का शोषण होने लगा। समाज दो वर्गो-श्रमिक व पुँजीपति बर्जुआ वर्गों में विभाजित हो गया। दोनों वर्गों में आपस में मतभेद बढ़ने लगे।

(5) समाजवाद या सर्वहारा वर्ग की तानाशाही- माक्स का मानना था कि पुँजीवाद में पूँजीपतियों और श्रमिकों (सर्वहारा वर्ग ) में निरन्तर संघर्ष चलेगा, क्योंकि पूँजीपति मजदूरों का निरन्तर शोषण करते हैं । माक्स उनको यह प्रेणा देता है कि मजदूरों! तुम्हारे पास खोने के लिए कुछ नहीं है, केवल अपनी जंजीरों को तोड़ने तथा जीतने के लिए विश्व पड़ा है। इसलिए दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ । माक्स की यह मान्यता है कि इस संघर्ष में पूँजीपति वर्ग समाप्त हो जायेगा तथा व्यवस्था पर सर्वहारा वर्ग या श्रमिक वर्ग का नियंत्रण हो जायेगा। यह संक्रमण काल होगा। यह सर्वहारा वर्ग का अधिनायकवाद उस समय तक रहेगा जब तक कि पूँजीवाद का पूर्णतया विनाश नहीं हो जायेगा । इसे माक्स समाजवाद का नाम भी देता है।

(6) साम्यवादी अवस्था-समाजवादी अवस्था का उत्कर्ष होने पर समाज में केवल एक श्रमिक वर्ग ही रह जायेगा, अत: वर्ग-विहीन समाज की स्थापना होगी। जब समाज में वर्ग नहीं होंगे, तब स्वत; ही राज्य भी क्रमश: समाप्त हो जायेगा । माव्स बताता है कि यह वर्ग- विहीन और राज्य विहीन सामाजिक अवस्था ही साम्यवादी अवस्था है । इस समाज में प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यातनुसार कार्य करेगा और उसे उसकी आवश्यकतान्सार वेतन (जपयोग की वस्तुएँ) प्राप्त होगा। मावर्स के अनुसार यह एक न्यायपूर्ण समाज होगा। की भौतिकवादी व्याख्या के मुख्य तत्व निम्नलिखित हैं इतिहास की भौतिकवादी अवस्था के प्रमुख तत्व या विशेषताएँ – माक्स की इतिहास विचारों, भावनाओं, प्रेरणाओं आदि के आधार पर नहीं होते वरन् अचानक होते हैं।

(i) सामाजिक विकास के निश्चित नियम हैं । इसमें परिवर्तन की इच्छा, महापुरुषों के

(ii) उत्पादन की स्थिति में जिस प्रकार और जिस क्रम में परिवर्तन आता है उसी के अनुसार सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन होता है क्योंकि उत्पादन की स्थिति में परिवर्तन हो जाने के बाद उस समय पाये जाने वाला राज्य शोषक वर्ग की आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर सकता।

(iii) इतिहास के विकास में प्रत्येक चरण का स्वरूप उत्पादन तथा वितरण के आधार पर निर्धारित होता है।

(iv) कार्ल माक्र्स अपनी भविष्यवाणी के अनुसार पूँजीवाद की समाप्ति व साम्यवाद के आगमन को आवश्यक मानता है।

(v) समस्त ऐतिहासिक विकासक्रम वर्ग-संघर्ष पर टिका है परन्तु साम्यवाद की सम्भावना हो जाने के बाद यह वर्ग-संघर्ष पूर्ण रूप से समाप्त हो जायेगा क्योंकि यह इतिहास की अन्तिम अवस्था होगी।

माक्स का द्वनद्धवाद– माक्स से पूर्व आदर्शवादी हीगल नें द्नद्धवाद का प्रयोग विकास को स्पष्ट् करने के लिए किया। हीगल की आदर्शवादी द्वद्द्रवाद की व्याख्या में कहा गया कि प्रकृति अथवा जगत के विकास का क्या रहस्य है ? हीगल ने बताया विचार (1dea) या आत्मा (Spirit) ही जगत के प्रत्येक पदार्थ के पीछे है। सर्वप्रथम भौतिक वस्तुएँ नहीं, उनके विचार हमारे सामने आते हैं । उदाहरण के लिए, यदि हम मेज का निर्माण करना चाहते हैं तो उसकी योजना या विचार साक्षात् मेज से पूर्व हमारे मस्तिष्क में विद्यमान हो जाता है । इसी तरह चराचर जगत भी विचार’ की हो उपज है। यह आत्मावादी द्न्द्वाद है। माक्स ने इस व्याख्या को अस्वीकार किया उसने हीगल के द्नद्धवाद के सार को ग्रहण किया जिससे वह अपना पूर्व निर्धारित लक्ष्य सिद्ध कर सके । उसने हीगल के सिद्धान्त की आदर्शवादी सामग्री को त्यागकर उसका बौद्धिक अस्तित्व ही स्वीकार किया । उसने बताया कि विकास क्रिया परिवर्तन “‘विचार’की अपेक्षा ‘ पदार्थ ‘ (Matter) द्वारा होते हैं । पदार्थ जगत में द्वन्द्ध चलता रहता है । वस्तुओं का निर्माण होता रहता है, पुरानी वस्तुएँ सड़-गल कर न्ट हो जाती हैं , नवीन वस्तुएँ उनका स्थान ग्रहण कर लेती हैं । उदाहरण के लिए, यदि हम गेहूँ के दाने के (पदार्थ) द्वन्द्ध का अध्ययन करें तो दिखाई देता है कि उसका विकास हो रहा है । उसे जमीन में गाड़ दीजिए, उसका वह रूप नष्ट हो जाता है और अंकुर के रूप में वह सामने आता है, अंकुर भी अपनी स्थिति पर स्थायी नहीं रहता, उसका विकास एक लहलहाते पाँथे के रूप में होता है । इसी संघर्षमय स्थिति का परिणाम यह होता है कि एक गेहूँ के दाने के विकास के द्वारा अनेक दाने प्राप्त होते हैं । विकास का यही द्वन्द्वात्म्क सिद्धान्त भौतिकवादी माक्स के द्न्द्धवाद की विशेषताएँ –

माक्र्स के द्वन्द्वाद की निम्न विशेषताएँ हैं –

(1) अन्तःनिर्भरता- माक्स के द्नद्दधवाद की प्रथम विशेषता यह है कि यह प्रकृति को एक अचानक एकत्रित की हुई वस्तुओं का संग्रह नहीं मानता। उसके अनुसार प्रकृति के पदार्थ अलग-अलग एक -दूसरे से असम्बद्ध व स्वतन्त्र नहीं होते, उनमें परस्पर एकता तथा सम्बन्ध रहता है। प्रकृति का प्रत्येक पदार्थ एक-दूसरे से जुड़ा हुआ तथा निर्भर रहता है । यहाँ द्न्द्धात्रक सिद्धान्त विश्व में प्राकृतिक सावयविक एकता स्पष्ट करता है।

(2) गतिशीलता – माक्स्स द्वारा प्रतिपादित द्नद्ध क दूसरी विशेषता वस्तुओं की गतिशीलता है। जगत स्थर नहीं , गतिमान है । द्वन्दुवाद प्रकृति को चलायमान मानता है, जिसमें नित्य प्रति द्न्द्ध के आधार पर परिवर्तन होते रहते हैं। यह परिवर्तन नीचे से ऊपर की ओर उन्नति मार्ग पर पहुँचाते हैं । नवीन पदार्थों का निर्माण और प्राचीन का विनाश विकास का क्रम है।

(3) मात्रात्मक एवं गुणात्मक परिवर्तन- दन्दुवाद की तीसरी विशेषता यह है कि परिवर्तन मात्रा तथा गुण दोनों प्रकार के रहते हैं। विकास की गति साधारण अथवा सामान्य नहीं होती। उन्नति का रहस्य छूपे हुए भावात्मक परिवर्तन से मौलिक स्थति में उछलते-कूदते हुए परिवर्तन होता है । उदाहरण के रूप में , यह विकास पेचकस के चक्कर की भाँति होता है, जिसमें प्रत्येक विकास साधारण से जटिलता की ओर, निमन स्थिति से उच्च की ओर होता है । यह परिवर्तन मात्रा द्वारा गुणों की ओर विकसित होता है। जल पर एक सीमा तक कोई परिवर्तन नहीं होता, लेकिन जैसे ही तापमान उठता या गिरता है, एक अवस्था ऐसी आती है कि वह भाष बर्फ बन जाता है।

(4) आन्तरिक विरोध – दन्द्वाद की अगली विशेषता प्रत्येक वस्तु का आन्तरिक अन्तर्निहित विरोध है । प्रकृति के प्रत्येक पदार्थ में आन्तरिक विरोध व्यापक है । प्रत्येक वस्तु में दो पक्ष होते हैं, उनका सकारात्मक (Positive) तथा नकारात्मक (Negative) स्वरूप, जिनमें निरन्तर द्वनद्धर या संघर्ष चलता रहता है। पुराना तत्त्व मिटता जाता है, नवीन उत्पन्न होता जाता है। इन दोनों का निरन्तर संघर्ष ही विकास का क्रम है।

(5) आर्थिक व्याख्या- द्न्द्वात्म्क भौतिकवाद प्राकृतिक जगत की आर्थिक त्वों के आधार पर व्याख्या करता है और पदार्थ को समस्त विश्व की नियन्त्रक शक्ति के रूप में स्वीकार करता है। माक्से के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के मख्य तत्त्व द्वनद्वात्म्क की इन विशेषताऔं के आधार पर उसके भौतिक द्न्द्रवाद के निम्नलिखित मुख्य तत्व्व बताये जा सकते हैं-

(1) पदार्थ की प्रधानता-माक्स सामाजिक क्षेत्र में दुश्य जगत् को वैज्ञानिक मानता है, जिसका स्पर्श किया जा सकता है या जिसकी जाँच की जा सकती है। इसलिए माक्स हीगल के ‘विचार तत्व’ की प्रधानता के स्थान पर ‘ भौतिक पदार्थ’ की प्रधानता को स्थापित करता है, क्योंकि पदार्थ दिखाई देता है, इसे जाना जा सकता है । विश्व का निर्माण क्रमिक रूप से उन्नति तथा पतन के चक्र द्वारा हण है, जिसके मूल में पदार्थ है । पदार्थ ही प्रत्येक परिवर्तन का आधार है। पदार्थ गतिशील है। गति विरोधों के संघर्ष से सम्भव होती है अत: पदार्थ में परस्पर अन्तर्विरोध का संघर्ष भी बन रहता है, जिससे परिवर्तन सम्भव होता है। अत: स्पष्ट है कि माक्स के विचारों का केन्द्र-बिन्द ‘पदार्थ’ है।

(2) शक्तयों का दूनद्ध-शक्तियों के द्वद्ध को माक्स ने हीगल के द्नद्धवाद के तीन शब्दों के आधार पर स्पष्ट किया है । ये तीन शब्द हैं- (i) वाद (Thesis) (i) प्रतिवाद (Antithesis) (iii) (Synthesis) माक्स के अनुसार वाद समाज की प्रारम्भिक स्थिति है। कुछ समय पश्चात् इस वाद से कुछ तत्व असंतुष्ट होकर विरोधी हो जाते हैं । इन विरोधी तत्वों को जो प्रतिक्रियास्वरूप उत्पन्न हुए, माक्स उन्हें प्रतिवाद कहता है । प्रतिवाद की स्थिति एक निषेधात्मक स्थिति है। यह स्थिति वाद की अपेक्षा अधिक विकसित है । आगे चलकर प्रतिवाद में भी अन्तर्विरोध प्रारम्भ हो जाता है और इस प्रकार अब दो पुराने और नये प्रतिवाद में संघर्ष होता है । इस संघर्ष में दौनं के अवगुण समाप्त हो जाते हैं तथा गुण बचे रहते हैं । फलस्वरूप एक नये समाज की रचना होती है, जिसे संवाद कहा जाता है । इस प्रकार वाद प्रतिवाद और संवाद की द्न्द्वात्मक प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। ऐन्जिल्स ने इसे स्पष्ट करने के लिए जौ के दाने का उदाहरण दिया है । उसी के अनुसार, लाखों जौ के दानों को प्रतिदिन पीसा जाता है, उबाला जाता है और उनकी शराब बनाई जाती है, परन्तु ….. उसे भूमि में बो दिया जाता है, तब उसमें भूमि की गर्मीं और नमी के कारण विशेष परिवर्तन होता है। वह गलकर ….. अंकृरित होता है । वह दाने के रूप में नहीं रहता …. उसके स्थान पर पौधा उत्पन्न होता है, फूल आते हैं, दाने आते हैं और दाने पककर फिर जौ के रूप में प्रकट होते हैं और पौधा सूखकर नष्ट हो जाता है । यही संवाद है। ” (३) रूपान्तर – द्वनद्वाद की क्रिया से एक ओर मात्रात्मक वृद्धि होती है। ऊपर के उदाहरण से स्पष्ट होता है कि जो के बीज से अन्त में संवाद की स्थिति में अनेक जो के बीज पैंदा हुए। इस प्रकार स्पष्ट है कि द्न्द्वाद से प्रारम्थ में मात्रात्मक वृद्धि होती है अर्थात् गुणात्मक परिवर्तन भी होता है। यदि पौधे और बीजरकी देखरेख की जाए तो अच्छे दाने भी प्राप्त होंगे। जहाँ पानी के उदाहरण से अधिक स्पष्ट किया जाता है । पानी को 100° सेन्टीग्रेड तक गर्म करते ही अचानक गुणात्मक परिवर्तन हो जाता है और 0° सेन्टीग्रेड तक ठण्डा किया जाए तो भी ऐसा ही होता है। अतः यह परिवर्तन मात्रात्मक से गुणात्मक की ओर होता है । परन्तु गुणात्मक परिवर्तन अचानक तथआ शीघ्र होता है, धीरे-धीरे नहीं । इस आधार पर उसने समाज की छ: अवस्थाओं के रूपान्तर को स्पष्ट किया।

(4) विकास- माक्र्स ने समाज को छ: अवस्थाओं में रूपान्तरित कर समाज के विकास को स्पष्ट किया है । माव्स्स के अनुसार समाज की अवस्थाओं का रूपान्तर एक तरफ गुणात्मक होता है, दूसरी तरफ यह रूपान्तर ‘प्रगति उन्मुख’ होता है। अन्त में पूँजीवादी व्यवस्था से सर्वहारा के प्रतिवाद द्वारा समाजवादी व्यवस्था संवाद के रूप में विकसित होती है। साम्यवाद इस विकास का पूर्ण वर्ग है जिसमें वर्ग नहीं होंगे, राज नहीं होगा और इस कारण संघर्ष नहीं होगा । आर्थिक व भौतिक समृद्धि के कारण संघर्ष का द्नद्दध हमेशा के लिए खत्म हो जायेगा द्वनद्वात्मक भौतिकवाद की आलोचना-द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की निम्न आधारों पर आलोचना की जाती है-

(अ) अस्पष्ट चिन्तन- ्वनद्वात्म्क भौतिकवाद अपने आप में पूर्णत: अस्पष्ट और थोथी मान्यता है। माक्स्स ने इसका पूर्ण और पर्यास विवेचन नहीं किया है। वेपर के शब्दों में – “द्वन्द्वाद की धारणा अत्यन्त गूढ़ और अस्पष्ट है।’

(ब) असंगतिपूर्ण अवधारणा-माक्स का द्नद्धवादी दर्शन इसलिए असंगतिपूर्ण है क्योंकि एक स्थान पर माक्स लिखता है कि, “व्यक्ति अपना इतिहास स्वयं बनाता है।” दूसरी ओर दइन्दवा्मक प्रक्रिया में उसने मानवीय इतिहास के भविष्यकालीन विकास को निर्धारित कर दिया है। यहाँ विरोधाभास यह है कि मानव स्वयं इतिहास का निर्धारण करता है तो भविष्यकालीन विकास को पहले से कैसे निर्धारित किया जा सकता है।

(स)अत्यधिक भौतिकादी दर्शन- मा्स का यह दर्शन अनावश्यक रूप से भौतिकवादी हैं क्योंकि माक्स की मान्यता है कि मानवीय चेतना भौतिक त्वों के अधीन है । मानव जीवन में भौतिक सन्तुष्टि ही मानव सन्तुष्टि की आधारशिला है । माकर्स की यह मान्यता निश्चय ही भ्रमपूर्ण है। केवल भौतिकवादी दर्शन के आधार पर आदर्शवादी दर्शन की सृष्टि नहीं को जा सकती।

(द) द्वनद्धात्मक पद्धति दोषपूर्ण – इतिहास एक अजस्त धारा की तरह है, जिसमें न तो हमें कोई अन्तिम अवस्था दिखायी देती है और न क्रान्ति द्वारा भिन्न -भिन्न परिवर्तनों की अवस्थाएँ ही दिखाई देती हैं । माक्स जिन सामाजिक अवस्थाओं का वर्णन करता है, वे किसी एक निर्दिष्ट समय पर अचानक नहीं आर्ीं । एक अवस्था दूसरी अवस्था में हजारों वर्षों के पश्चात् परिवर्तित हुई है।

(य) द्वनद्वात्मक प्द्धति खतरनाक -यह पद्धति इसलिए भी दोषपूर्ण है क्योंकि इसमें यह पहले से ही मान लिया गया है कि व्यक्ति आर्थिक शक्तियों का दास है, उसमें इतिहास के क्रम को बदलने की शक्ति नहीं है । इसका अर्थ है हम नवीन समाज की कल्पना करना ही छोड़ दें।

(र) इतिहास केवल उत्थान का ही लेखा नहीं – द्न्द्धवाद में यह मान लिया गया है कि इतिहास का क्रम सदैव उन्नति की ओर ही रहा है, किन्तु यह मान्यता पूर्णतः सत्य नहीं है। वास्तविकता यह है कि मानवीय इतिहास उत्थान और पतन दोनों का ही लेखा-जोखा है। माक्स के द्वद्धवाद का महत्त्व -माक्स पूँजीवाद के शोषित स्वरूप के स्थान पर साम्यवादी समाज की स्थापना करना चाहता था। द्वन्द्वद के प्रयोग से उसने अपने विचारों को सिद्ध करने के लिए महत्वपूर्ण तर्क दिये ।

(1) द्न्द्वाद की गतिशीलता के माध्यम ने पूँजीवाद के विनाश के उपरान्त समाजवाद का मार्ग प्रदर्शित किया।

(2) द्नद्दुवाद ने गुणात्मक तीव्र गति से परिवर्तन द्वारा क्रान्ति का औचित्य सिद्ध किया।

(3) प्रत्येक पदार्थ का अन्त्निहित विरोध वर्ग-संघर्ष को अनिवार्य बना देता है।

इस प्रकार माक्स ने द्न्द्वाद के आधार पर पूँजीवाद् के आगे समाजवाद के आगमन, क्रान्ति के औचित्य एवं अन्तर्निहित वर्ग-संघर्ष द्वारा परिवर्तन का एक सुस्पष्ट वैज्ञानिक विवेचन किया।

Related Posts

हमारे अतीत Class 7 (Our Past) अध्याय-1 हजार वर्षो के दौरान हुए परिवर्तनो की पडताल (वन लाईनर व्याख्या)

हमारे अतीत Class 7 (Our Past) JOIN OUR TELEGRAM GROUP हमारे अतीत तेरहवी सदीं में जब फारसी के इतिहासकार मिन्हाज-ए-सिराज ने हिन्दूस्तान शब्द का प्रयोग किया था…

हीगल की द्वद्वात्मक प्रणाली

हीगल की द्वद्वात्मक प्रणाली हीगल के मतानुसार द्वनद्धवाद एक स्वतः उत्पन्न प्रक्रिया है। यह जगत के विकास का सिद्धान्त है तथा यह “आत्म-त्व’ के निरन्तर विकास की…

माक्स के इतिहास की भौतिकवादी अवधारणा की आलोचना

माक्स के इतिहास माक्स के इतिहास की भौतिकवादी अवधारणा की आलोचना निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत की गई है (1) एकांगी सिद्धान्त-यह कहना वस्तुत: अतिशयोक्ति है कि परिवर्तन…

अतिरिक्त मूल्य के सिद्धान्त पर कार्ल माक्स के विचार | कार्ल माक्स

अतिरिक्त मूल्य के सिद्धान्त का प्रतिपादन कार्ल माव्र्स ने किया था। माक्स के अनुसार प्रत्येक वस्तु का वास्तविक मूल्य उस पर व्यय किये गये श्रम के अनुसार…

पूँजीवाद से क्या आशय है ? पूँजीवाद के मुख्य लक्षणों एवं यूरोप में पूँजीवाद के उदय के कारणों पर प्रकाश डालिये।

पूँजीवाद पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्त में यूरोप में जो नयी अर्थव्यवस्था उभर रही थी उसे पूँजीवाद कहा जाता है। पूँजीवाद एक संस्था से अधिक एक लोकाचार है।…

प्लेटो के न्याय सिद्धान्त का स्वरूप

प्लेटो ने न्याय सिद्धान्त के दो स्वरूपों का वर्णन किया है– ( 1) व्यक्तिगत, (2) सामाजिक। (1) व्यक्तगत न्याय का स्वरूप- पाइथोगोरस की तरह प्लेटों मानवीय आत्मा…

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x