माक्स के इतिहास माक्स के इतिहास की भौतिकवादी अवधारणा की आलोचना निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत की गई है
(1) एकांगी सिद्धान्त-यह कहना वस्तुत: अतिशयोक्ति है कि परिवर्तन केवल आर्थिक तथ्यों के कारण ही होते हैं और कानून, सदाचार, धर्म आदि जो समाज के सांस्कृतिक जीवन तथा उसकी संस्थाओं का निर्माण करते हैं, समाज के आधारभूत आर्थिंक ढाँचे के ही प्रतिफल हैं। मानव-कार्य इतने सरल नहीं हैं कि उनके क्रियान्वयन में कोई एक ही प्रयोजन हो। उन पर मनुष्यों के अच्छे-बुरे विचारों, मनोविकारों और सामाजिक वातावरण का प्रभाव पड़ता है।
(2) उत्पादन शक्तियों से उत्पादन- सम्बन्थ निर्धारित होते हैं, ठीक नहीं है- माक्स का यह कहना है कि उत्पादन शक्तियों से उत्पादन सम्बन्ध निधथारित होते हैं, ठीक नहीं है । आज इस वैज्ञानिक युग में अमेरिका और रूस में लगभग एक समान उत्पादन यंत्र और प्राविधिक आधार होने पर भी उत्पादन के सम्बन्धों में काफी अन्तर है। अमेरिका में जहाँ बड़े-बड़े उद्योग- धन्धे पूँजीपतियों के हाथ में हैं वहाँ रूस में इन पर राज्य का स्वामित्व है।
(३) आर्थिक तत्व पर अनावश्यक बल-माव्स ने आर्थिक तत्वों निर्धारक बताकर अनुचित सारल्य दोष पैदा किया है । मानव इतिहास बड़ा जटिल है जिसमें कई प्रभावशाली शक्तियाँ कार्य कर रही हैं । ऐसे कई उदाहरण मानव इतिहास में मिल जाते हैं जहाँ व्यक्तिगत षड्यंत्रों, काम – ईष्य्या, धार्मिक जोश तथा धर्म प्रसारण अभियानों, सत्ता हथियाने और शक्तिप्राप्त करने की लोलुपता के तथा अन्य ऐसे ही अनेक कारणों से सभ्यताएँ ध्वस्त हो गई हैं। इन सारे तत्वों का महत्व किसी भी हालत में आर्थिक तत्वों से कम नहीं रहा। अत: मानव इतिहास के विवेचन में इनको उपेक्षित करना इतिहास के साथ अन्याय करना है।
(4) शक्त प्राप्त करने का साधन केवल आर्थिक नहीं होता – माक्स का यह कहना गलत है कि जिसके पास आर्थिक शक्ति होती है, वही राजनीतिक शक्ति का उपभोग करता है। शक्ति प्राप्त करने का साधन केवल आर्थिक नहीं होता है । प्राचीनकाल में भारत में ब्राह्मणों तथा मध्यकालीन यूरोप में पोप ने अर्थेतर कारणों से शक्ति प्राप्त की थी तो वर्तमान युग में अधिनायकवाद की स्थापना मुख्यतः सैन्य शक्ति द्वारा होती है । बुद्धिमत्ता, साहस, कपट आदि तत्व भी सत्ता प्रापत करने में महत्वपूर्ण योग देते हैं।
(5) प्रत्येक संघर्ष पहले से अच्छी अर्थव्यवस्था को जन्म देता है, इतिहास को झुठलाना है-यह बात भी संशयास्पद है कि जब भी इतिहास में कोई प्रचण्ड परिवर्तन होते हैं तो वह सदा पहली वाली अवस्था से अचछी ही अवस्था को जन्म देते हैं। इस सम्बन्थ में रसैल ने लिखा है कि जब असंस्कृत बर्बर जाति के रोम पर आक्रमण का जन्म नहीं हुआ था। अतः यह कहना कि प्रत्येक संघर्ष पहले से अच्छी अर्थव्यवस्था को जन्म देता है, इतिहास को झुठलाना है।
(6) मानवीय इतिहास का कालक्रम निर्धारित करना संभव नहीं -माक्स ने अपनी अर्थव्यवस्था में इतिहास का काल विभाजन किया है। यह है दास युग, सामन्तवादी युग, पुँजीवादी युग और सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व तथा साम्यवादी युग। परन्तु 1917 में रूस की क्रांति के पूर्व वहाँ पूँजीवादी व्यवस्था का कहीं नामोनिशान नहीं था वह पूर्णत: कृषि प्रधान राज्य था। वहाँ सामन्तवाद से सीधी सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की व्यवस्था कायम हुई और 1991 में सोवियत संघ के बिखराव के बाद रूस में साम्यवादी व्यवस्था से पँजीवादी व्यवस्था की स्थापना हुई है। अत: माक्स का यह काल-विभाजन सही नहीं कहा जा सकता है। माक्स का वर्ग संघर्ष का सिद्धान्त कार्ल हेनरिक माक्स ने मानव जीवन एवं समाज में पाये जाने वाले इस वर्ग विभेद को अपनी सामाजिक विवेचना का प्रमुख आधार माना है। उसके ऐतिहासिक भौतिकवाद और दन्द्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धान्त वास्तव में उसके स्वयं के वर्ग सिद्धान्त पर ही टिके हुए हैं।
माक्स के वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्त को निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है–
(1) समाज की प्रत्येक अवस्था में दो वर्ग रहे हैं -इसके अनुसार इतिहास के प्रतयेक मय में मानव समाज अपने जीविकोपार्जन के साधनों तथा उत्पादन की शक्तियों की पारस्परिक अन्त :क्रिया के फलस्वरूप वर्गों के रूप में विभाजित रहा है। कार्ल माक्स के अनुसार मानव का अब तक सम्पूर्ण इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है । इनके अनुसार जिस तरह आधुनिक पूँजीवादी समाज दो प्रमुख वर्गों में विभाजित है, ठीक उसी प्रकार मानव समाज की प्राचीन ऐतिहासिक अवस्थाओं में भी प्रत्येक समाज में वर्ग-संघर्ष रहा है । सदैव ही यह देखने में आया है कि आर्थिक उत्पादन की शरक्तियों पर समाज के कुछ थोड़े से लोगों का आधिपत्य स्थापित होता आया है, जबकि समांज के शेष लोग इन उत्पादन के साधनों और उपकरणों से वंचित रहते हैं। ये लोग पहले वर्ग के लोगों के दास, अधीनस्थ तथा सेवक के रूप में कार्य करते हैं । इस प्रकार प्रत्येक समाज स्पष्ट रूप से दो वर्गों में विभक्त हो जाता है। माक्स ने इन्हीं दो वर्गों का स्प्ट रूप से उल्लेख किया है । जो उत्पादन के साधनों का स्वामित्व प्राप्त कर लेते हैं , उसे वे एक शोषक वर्ग के नाम से पुकारते हैं तथा जिस वर्ग का शोषण किया जाता है, उसे वे एक सर्वहारा वर्ग कहते
(2) वर्ग से माव्स का तात्पर्य- माक्स के अनुसार जब समाज के एक समूह के समान हित हो जाते हैं और उन समान हितों के कारण उनके पारस्परिक सम्बन्धों में दूढ़ता आ जाती है, तो उसी सामूहिक समृह को एक र्ग की संज्ञा दी जाती है। वर्गों से माक्स का अर्थ उन जन- समूहों से है, जिनकी परिभाषा उत्पादन की प्रक्रिया में उनकी भूमिका के द्वारा की जा सकती है । साधारण शब्दों में, हम कह सकते हैं कि, “वर्ग ऐसे लोगों के समृह को कहते हैं जो अपनी जीविका एक ही ढंग से कमाते हों।” माक्स के अनुसार उत्पादन प्र्णाली में परिवर्तन के साथ-साथ नये वगों का जन्म होता रहता है व पुराने वर्ग समाप्त होते रहते हैं। माक्स ने कुछ समाज के वरगों का विस्तार से वर्णन किया है, जिनमें मुख्य है आदिम सामुदायिक समाज में वर्ग, दासमूलक समाज में बर्ग, सामन्ती सुमाज में वर्ग, पँजीवादी समाज में वर्ग आदि ।
(3) वर्ग-संघर्ष का इत्तिहास – कार्ल माव्स के अनुसार मानव इतिहास को पाँच प्रमुख भागों में बाँटा जा सकता है । पहला, आदियुगीन साम्यवाद जिसमें आदिकालीन वर्गविहीन समाज की कल्पना की गई है। दूसरा, प्राचीन समाज की कल्पना की गई है । तीसरा, भूस्वामी समाज, एवं चौथा, आधुनिक पूँजीवादी समाज तथा पाँचरवं, साम्यवादी समाज। इनके मत में आदिकालीन साम्यवादी समाज के बाद के सभी समाज स्तरित होते चले गये और वर्गों के आधार पर उनमें सामाजिक स्तरीकरण होता चला गया । संसार के सभी समाज प्रायः दो वर्गों में विभाजित होते गये, क्योंकि इस वर्ग विभाजन के आर्थिक आधार भी परिवर्तित होते गये। उपर्युक्त दोनों वर्ग पहले स्वामी एवं दास, पुनः स्वामी और सेवक तथा आथिक विकास की तीसरी अवस्था या अन्तिम अवस्था में पूँजीपति तथा श्रमिक के रूप में परि र्तित होते गये । प्रत्येक युग में उत्पादन की एक आधारभूत आर्थिक आवश्यकता महसूस की गई। इस व्यवस्था के अन्तर्गत पूँजी थोड़े-से अर्थात् एक अल्पसंख्यक वर्ग के हाथ में केन्द्रित होती चली गई और सर्वहारा वर्ग की संख्या नित्य प्रति बढ़ती गई । फलस्वरूप पूँजीपति वर्ग संख्या में अल्पमत अवश्य होता है, किन्तु उत्पादन के लगभग सभी साधनों का स्वामित्व व संचालन तथा नियंत्रण इस वर्ग के ही हाथ में होने के कारण यह वर्ग समाज पर हावी हो जाता है और श्रमिक वर्ग बहुमत में होने के बावजूद साधनहीन तथा अत्यन्त द्यनीय स्थिति को प्राप्त कर लेता है । पूँजीपति वर्ग उसका शोषण करता है। परिणामस्वरूप इस शोषण के विरोध में श्रमिक वर्ग में वर्ग चेतना जन्म लेती है, वे संगठित होते हैं और पूँजीपति वर्ग के विरुद्ध संघर्ष शुरू कर देते हैं । अन्त में वर्गहीन साम्यवादी व्यवस्था का जन्म होता है।
(4) वर्ग-संघर्ष का स्रोत वर्ग हितों का प्रतिरोध – तात्विक रूप से वर्ग-संघर्ष का वर्ग हितों का प्रतिरोध है। जो एक वर्ग का हेतु है, वह दूसरे वर्ग का प्रतिरोधक है । पूँजीवादी समाज में मजदूर तथा पूँजीपति के हित परस्पर विषरीत होते हैं । बुजुअओं वर्ग जहाँ शोषण बढ़ाने, पुँजीवादी प्रणाली को बनाये रखने और अपने आर्थिक तथा राजनीतिक प्रभुत्व सुदूृढ करने में दिलचस्पी रखता है, वहाँ मजदूर वर्ग शोषण का उन्मूलन करने और उस पर आधारित सामाजिक उत्पीड़न का खात्मा करने तथा शोषक राज्य को नष्ट करने में दिलचस्पी रखता है।
(5) वर्ग-संघर्ष की चरम अभिव्यक्ति क्रांति -माक्स और ऐजिल्स के मतान्सार सामाजिक विकास की एक निश्चित अवस्था में वर्ग संघर्ष अनिवार्य रूप से सामाजिक क्रांति की तरफ ले जाता है । वर्ग- संघर्ष की चरम अभिव्यक्ति स्वयं क्रांति है। जब क्रांतिकारी वर्ग राजनीतिक सत्ता अपने हारथों में ले लेता है तब उसका प्रयास सामाजिक सम्बन्धों में आमूलचूल परिवर्तन लाने के लिए होता है । क्रांतिकारी वर्ग के लिए संघर्ष ही एकमात्र वह साधन है जिसकी सहायता से सामाजिक विकास के तात्कालिक कार्य पूरे किये जाते हैं।
(6) वर्ग-संघर्ष एवं राजनीतिक संघर्ष – वर्ग संघर्ष राजनीतिक संघर्ष को, भी बढ़ावा देता है। मजदूर वर्ग अपने राजनीतिक हितों की रक्षा के लिए राजनोतिक सत्ता में हिस्सा लेने और अन्तत: सत्ता के लिए राजनीतिक सम्बन्धों की प्रणाली में मजदूर वर्ग के प्रधुत्व की स्थापना करने के लिए स्ंघर्ष करता है। वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्त की आलोचना माक्स के वर्ग- संधर्ष के सिद्धान्त की आलोचना निम्नलिखित आधारों पर की जाती है-
(1) समाज में दो ही वर्ग नहीं अनेक वर्ग पाये जाते हैं-समाज में केवल मात्र दो ही वर्ग नहीं पाये जाते वरन् अनेक वर्ग पाये जाते हैं मुख्य रूप से तीन वर्ग तो प्रत्येक सपाज में पाये जाते हैं- -उच्च वर्ग, मध्यम वर्ग, निम्न वर्ग। मध्यम वर्ग प्रत्येक समाज में महत्त्वपूर्ण स्थिति रखता है जिसमें डॉक्टर्स, इंजीनियर्स, वकील, अध्यापक, लिपिक, प्रबन्धकों, उच्च अधिकारियों, सेवकों आदि को शामिल किया जाता है। माक्स ने इस वर्ग को पूरी तरह भुला दिया है।
(2) इतिहास आर्थिक वर्गों के संघर्ष की कहानी नहीं -माक्स का यह कथन गलत है कि इतिहास में जो भी संघर्ष हुए हैं, उनके पीछे आर्थिक कारण ही थे। माक्स ने ऐतिहासिक संघर्षों में मनोवैज्ञानिक, धार्मिक, लैंगिक, इच्छाओं, महत्त्वाकांक्षाओं आदि तत्वों की पूर्णंत: उपेक्षा की है। अनेक युद्धों का कारण या तो व्यक्तिगत महत्त्वाकाक्षा रही है या था्मिक कट्टृरता।
(3) सामाजिक जीवन सहयोग पर आधारित -माक्स की यह धारणा कि अब तक के समाज को इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास रहा है, सही नहीं है। माक्स का यह सिद्धवान्त रचनात्मक नहीं है, यह उद्देश्यहीन और समाज में सदैव के लिए विष फैलाने वाला है। पूँजीपतियों और श्रमजीवियों में भी परस्पर सहयोग के द्वारा ही समस्त समाज लाभान्वित हो सकता है।
(4) राष्ट्रीय तत्वों की उपेक्षा – मा्स संघर्षों में आर्थिक तत्वों पर ही वल देता है, किन्तु उसने गैर-आर्थिक तत्वों की पूर्णत: उपेक्षा की है। सिकन्दर, अशेक, समुद्रगुप्त, राणा प्रताप, युरोपीय शासक आदि के संघर्षों के पीछे गैर-आर्थिक तथा राष्ट्रीय तत्व ही अधिक थे । इतिहास में ऐसे बहुत से उदाहरण भरे पड़े हैं जबकि बुर्जुआ और सर्वहारा वर्ग ने मिलकर शत्रु का सामना किया।
(5) पूँजीवाद के बारे में गलत धारणा- वर्ग संघर्ष के सिद्धां्त के प्रतिपादन में उनके पूँजीवाद के बारे में यह गलत धारणा बनी रही कि पूँजीवादी व्यवस्था लचीली व्यवस्था नहीं है। वह परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को नहीं बदल सकेगी और एक दिन समाप्त हो जायेगी, परन्तु पूँजीवादी व्यवस्था ने इस विचार के विपरीत उत्पादन पद्धति में सुधार कर परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को ढाल लिया और आज वह श्रमिकों का समर्थन भी लेती जा रही है । इस प्रकार वर्ग -संघर्ष द्वारा पूँजीवाद के विनाश की माक्स की धारणा एक मृगतृष्णा बन गई है।
(6) माक्स का वर्ग-संघर्ष सिद्धान्त हानिकारक भी है -कैटलिन महोदय का कहना है कि, “माक्स का वर्ग-संघर्ष का सिद्धान्त ही आधुनिक करष्टों, रोगों और यहाँ तक कि फासीवाद का जन्मदाता है-संघर्ष विनाश का लक्षण है, निर्माण का नहीं । यह सहानुभूति, सहयोग, प्रेम, भ्रातृत्व के स्थान पर घृणा का प्रचार करता है, जो कि त्रुटिपरक है। “
(7) एकांगी विचार -माक्र्स ने जिस वर्ग-संघर्ष की अवधारणा का प्रतिपाद्न किया है, वह एकांगी है क्योंकि इसने आर्थिक वर्ग को छोड़कर अन्य किसी भी वर्ग को चाहे वह सामाजिक हो या राष्ट्रीय, धार्मिक व सांस्कृतिक हो, सबको उपेक्षित कर दिया है।