प्लेटो के न्याय सिद्धान्त का स्वरूप

प्लेटो ने न्याय सिद्धान्त के दो स्वरूपों का वर्णन किया है– ( 1) व्यक्तिगत, (2) सामाजिक।

(1) व्यक्तगत न्याय का स्वरूप- पाइथोगोरस की तरह प्लेटों मानवीय आत्मा तत्वों का समावेश मानता है । ये तत्व हैं- (क) साहस, (ख) बुद्धि, (ग) इन्द्रिय तृष्णा । प्लेटो का मत है कि ये तीनों गुण जब उचित अन्पात में और अपने पूर्ण विकास में मानव मस्तिष्क में विद्यमान रहते हैं, तभी वह व्यक्ति न्यायी हो सकता है अथात् तीनों का पूर्ण विकास एवं उनका उचित समन्वय व्यक्ति के जीवन में न्याय की सृष्टि करता है । प्रो. सेबाइन के शब्दों में, “प्रत्येक व्यक्ति को उसका प्राप्य मिल जाए, यही न्याय है।

(2) सामाजिक न्याय का स्वरूप-प्लेटो के सामाजिक न्याय सिद्धान्त को निम्नलििखि में तीन बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है- समाज के तीन वर्गों की धारणा-प्लेटो के अनुसार, “राज्य मानव मस्तिष्क का के अनुरूप राज्य के भी तीन प्रमुख गुण बताये हैं-

(1) शौय, (2) बुद्विमत्ता व (3) तृष्णा 

(1) सैनिक वर्ग, (2) प्रशासक वर्गे व (3) उत्पादक वर्ग। 

प्लेटो प्रत्येक वर्ग का ही व्यापक रूप है। ” प्लेटो ने अपने सामाजिक न्याय के सिद्धान्त में मानव आत्मा के तीन गणों करुधा। इन तीनों गुण्णों के अनुसार, वह समाज के समस्त व्यक्तियों को क्रमशः तीन वरगों में बाँर अपना-अपना कार्य सुनिश्चत कर देते हैं।

(1) श्रम विभाजन-प्लेटो आत्मा के तीनों गुणों (विवेक, साहस तथा तृष्णा) के अनुसार समाज के सभी व्यक्तियों को तीन वर्गों (प्रशासक, सैनिक एवं उत्पादक) में बाँट देता है । प्रत्येक वर्ग का अलग-अलग कार्य निर्धारिण कियां गया है। इस प्रकार प्लेटो ने अपने न्याय सिद्धात में श्रम-विभाजन के सिद्धान्त की कार्य के रूप में लागू किया है। प्लेटो ने व्यक्तिगत न्याय के अन्तर्गत यह कहा है कि किसी व्यक्ति में इन तीनों गुणों का पूर्ण विकास ही न्याय है, वह सामाजिक न्याय के अन्तर्गत वह यह तर्क देते हुए कि यद्यपि प्रत्येक व्यक्ति में तीनों गुण पाए हैं, तथापि इनमें से प्रत्येक में किसी एक गुण की प्रधानता होती है । जिस व्यक्ति में जिस गुण के प्रधानता है उसके अनुसार ही उसे कार्य दिया जाना चाहिए।

(2) कार्य की विशेषज्ञता तथा शिक्षा योजना- जब व्यक्ति को उसके आत्मिक तथा शिक्षा-दीक्षा के अनुरूप कार्य मिलेगा तो वह उस कार्य को सुन् तथा शिक्षा-दीक्षा के अनुरूप कार्य मिलेगा तो वह उस कार्य को सुन्दर ढंग से सम्पादित तथा उस कार्य में वह विशेषज्ञ तथा उस कार्य में वह विशेषज्ञता प्राप्त कर लेगा, जिससे कार्य अपने श्रेष्ठतम रूप मे गज्ञता प्राप्त कर लेगा, जिससे कार्य अपने श्रेष्ठतम विशेषज्ञता में सहयोग देने के लिए प्लेटो ने अपनी शिक्षा योजना को सुन्दर ढंग से सम्पादित। 

विशेषज्ञता में सहयोग देने के लिए प्लेटो ने अपनी शिक्षा योजना को प्रतिपादित किया

(3) अहस्तक्षेप और साम्यवाद की योजना –

(4) अहस्तक्षप और साम्यवाद की योजना-अहस्तक्षेप प्लेटो का कथन है कोई व्यक्ति अपने कार्य में विशेषज्ञता तभी प्राप्त कर सकता है, जब अन्य कोई उसके कार्य হतक्षेप न करे। इस बारे में प्लेटो ने दूसरों के कार्यों में हस्तक्षेष के दो कारण ढूँैढ्ध हं । प्रथम परिवार और द्वितीय, सम्पत्ति । इस आधार पर प्लेटो ने अहस्तक्षेष के सिद्धान्त को कार्य रूप में जशिणात करने के लिए सम्पत्ति तथा स्त्रियों के साम्यवाद की योजना प्रस्तुत की है। इन्नहीं दोनों तत्वों की विवेचना प्रो. सेबाइन ने इस तरह की है कि ‘व्यक्ति को क्या प्राप्य हो’ और ‘व्यक्ति से क्या हो।’व्यक्ति को अपने कार्य के अन्तर्गत अहस्तक्षेष प्राप्त होना चाहिए और व्यक्ति से अपने कार्य के अन्तर्गत विशेषज्ञता प्राप्त होनी चाहिए।

अत: प्लेटो ने अपने सामाजिक न्याय के सिद्धान्त को तीन सीद़ियों द्वारा विकसित किया। 

प्रथम- श्रम विभाजन, द्वितीय-विशेषज्ञता और तृतीय-अहस्तक्षेप।

  1. प्लेटो के न्याय सिद्धान्त की विशेषताएँ

प्लेटो के न्याय सिद्धान्त की उपर्युक्त विवेचना के आधार पर उसके सिद्धान्तों में निम्नलिखित प्रमुख विशेषताएँ दिग्दर्शित होती हैं-

(1) प्लेटो का न्याय सिद्धान्त बाह्या नहीं आन्तरिक है-प्लेटो का न्याय कृत्रिम नहीं और न ही बाहरी है। यह मनुष्य के अन्त:करण की सर्व श्रष्ठ व स्थायी भावना है, जिसका आधार है-आत्मा संयम।

(2) राज्य’ व्यक्ति’ का वृहत् रूप है- प्लेटो के न्याय सिद्धान्त में व्यक्ति को समाज का एक अंग माना गया तथा राज्य से पृथक् व्यक्ति का कोई अस्तित्व नहीं है । उसके कार्यों का मूल्यांकन सम्पूर्ण राज्य के एक सदस्य के रूप में ही किया जाना चाहिए। व्यक्ति की आत्मा के तीन गुण होते हैं= (1) विवेक, (2) साहस और (3) वासना या क्षुधा। व्यक्ति की आत्मा के ये तीन गुण राज्य की आत्मा में भी परिलक्षित होते हैं । राज्य में व्यक्ति निवास करते हैं । उनकी आत्मा के विभिन्न गुणों के संचय से राज्य में भी तीन गुणों के आधार पर तीन वर्ग बन जाते हैं-

(1) शासक, (2) सैनिक एवं (3) उत्पादक ।

इस विभाजन का आधार आत्मिक गुण ही माना गया है। जिस व्यक्ति में जिस गुण की अधिकता होती है, उसे उसी वर्ग में सम्मलित किया जाता है। राज्य का प्रत्येक वर्ग अपने-अपने कार्यों को सर्वोत्तमता के साथ बिना किसी हस्तक्षेप के करता है । इस तरह व्यक्ति और राज्य की आत्मा के तीनों गुणों का सर्वोत्तम विकास होता है और यही न्याय है। इस प्रकार प्लेटो के न्याय सिद्धान्त में राज्य व्यक्ति का वृहद् रूप है।

(3) अहस्तक्षेप का सिद्धान्त-प्लेटो का न्यायिक सिद्धान्त अहस्तक्षेप के सिद्वान्त आधारित है। प्लेटो के अनुसार राज्य में प्रत्येक वर्ग के कार्य निश्चित हैं और न्याय प्रत्येक व्यक्ति से यह आशा रखता है कि वह दूसरे के कायों में हस्तक्षेप नहीं करेगा। मनोयोग से करना चाहिए तथा दूसरों के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। 

(4) श्रम विभाजन के सिद्धान्त पर आधारित – प्लेटो का न्याय सिद्धान्त श्रम-विभाजन का सिद्धात्त पर आधारित है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी प्रकृति के अनुसार एक ही प्रकार का कार्थ अपने न्याय सिद्धान्त को श्रम विभाजन के सिद्धान्त पर आधारित किया है।

(5)नैतिक सिद्धान्त-पलेटो का न्याय कर्त्य बोध कराता है । यह कानूनी न्यायपालिका बताया है कि”जिसे हम नैतिकता कहते हैं, वही प्लेटो का न्याय है। न्याय नहीं है। इसकी मान्यता नैतिक है। इसीलिए फोस्टर ने प्लेटो के न्याय सिद्धान्त के बारे वाला

(6) दाशेनिक शासक -प्लेटो ‘न्याय’ के सिद्धान्त को सर्वोत्कृष्ट रूप में व्यवहार मेंदेखने के लिए दार्शनिक शासन की व्यवस्था देता है । उसके अनुसार पूर्ण न्याय तभी सम्भव है जब शासक दार्शनिक होगा। दार्शनिक शासक पूर्ण विवेकवान होगा और उसे प्रत्येक के कर्त्व्य- अकर्त्य का भान होगा। वह निष्पक्ष रहता हुआ, अनेक प्रलोभनों से दूर रहेगा।

(7) न्याय कार्य-विशेषीकरण का सिद्धान्त-प्रत्येक व्यक्ति अपने प्रकृति प्रदत्त गुर्णों के कारण किसी एक कार्य विशेष के लिए ही उपयुक्त होता है । जिस कार्य सम्बन्धी गुण उसमें अधिक होता है, वह यदि उसी कार्य को विधिवत् करता चला जाये, तभी कार्यक्षमता दिखाई देती है। इसीलिए प्लेटो का कथन है कि “” जिस कार्य के करने की प्रकृति-प्रदंत्त सर्वोत्तम प्रतिभा व्यक्ति में हो, उसे एकमात्र वही कार्य करना चाहिए “

विभाजन का आधार

विभाजन का आधार

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