ग्रीन के राजनीतिक दर्शन
ग्रीन के राजनीतिक दर्शन ग्रीन के राजनीतिक दर्शन की प्रमुख रूप से निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की जाती
(1) रूढ़िवादी एवं अनुदार दृष्टिकोण-ग्रीन का दृष्टिकोण रूढ़िवादी एवं अनुदार है। उसका यह विचार है कि संस्थाएँ ” विवेक की प्रतिमूर्ति होती है’ इस दृष्टि से भयानक है कि इसके आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि जो कुछ और जिस रूप में है, वैसा ही ठीक है। यह कहा जाता है कि उसका झुकाव वर्तमान व्यवस्था को बनाए रखने तथा उसका समर्थन करने का था सम्पत्ति के महत्त्व और सम्पत्ति की विषमता का उसने जो समर्थन किया है, इस कारण भी उसको प्रगति -विरोधी और अनुदारवादी कहा जाता है।
(2) अत्यधिक बौ्धिक दृष्टिकोण- ग्रीन का सम्पूर्ण दृष्टकोण अत्यधिक बौद्धिक है। उसके द्वारा उन अचेतन तत्वों पर ध्यान दिया गया है जो राज्य में रहने वाले व्यक्तियों के कार्यों को प्रभावित करते हैं। अपने दण्ड विषयक विचारों में ग्रीन व्यक्ति के मनोवेगों और भावनाओं को बिलकुल ही भूल जातां है । वह व्यक्ति को पूर्णतया चेतनशील और बौद्धिक प्राणी मानता है, जो अवास्तविक है।
(3) मिथ्या मान्यताओं पर आधारित दर्शन – ग्रीन के राजनीतिक चिन्तन की मूल मान्यता यह है कि व्यक्ति मूलत: एक पूर्ण श्रेष्ठ प्राणी है और वह आध्यात्मिकता, नैतिकता और समाज कल्याण की दिशा में प्रयुक्त होता रहता है । वस्तुस्थिति इससे भिन्न है, मानव में केवल दैवीय प्रवृत्तियाँ ही नहीं वरन् दैवीय और आसुरी दोनों ही प्रकार की प्रवृत्तियाँ विद्यमान रहती है, इन दोनों में संथर्ष होता रहता है और यदि इस संघर्ष में दैवीय प्रवृत्तियों की विजय होती भी है, तो काफी लम्बे संघर्ष के बाद ।
(4) प्रभुसत्ता का दोषपूर्ण सिद्धान्त-ग्रीन हद्वारा प्रतिपादित सम्रभुता का सिद्धात्त भीसंतोषजनक नहीं है। ग्रीन सम्प्रभुता को सामान्य इच्छा का समर्थन पाने पर ही सवोच्च शक्ति मानता है, लेकिन जैसा कि हाबहाऊन कहते हैं, ” जहाँ तक उसके इच्छा होने का सम्बन्ध है, वह सामान्य नहीं है और जहाँ तक वह सामान्य है वहाँ तक इच्छा नहीं है। ” इस प्रकार ग्रीन द्वारा अपने प्रभुसत्ता सिद्धन्त में ऑस्टिन और रूसो के विचारों के समन्वय का जो प्रयत्न किया गया है, उसमें उसे सफलता नहीं मिली है । मैकाइवर ने ग्रीन की प्रभुसत्ता सम्बन्धी धारणा की समीक्षा करते हुए लिखा है कि “”ग्रीन प्रभुसत्ता की आधुनिक समस्या के छोर पहुँचकर, उसे छूकर ही रह जाता है, उसका हल नहीं दे पाता।'” इन सबके अतिरिक्त ग्रीन का प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धान्त भी असंगतिपूर्ण है।
ग्रीन के चिन्तन में उदारवादी तत्व्व
उदारवादी विचारक उसे कहते हैं जो व्यक्ति और समाज को अलग-अलग इकाइयाँ मानते हुए दोनों को परस्पर एक- दूसरे के लिए पू्रक मानता है । ग्रीन ने मिल के उदारवाद को उसकी व्यक्तिवादी अति से निकालकर स्वीकार किया है और उसमें सामाजिक निष्ठा तथा नैतिकता की उत्कृष्ट भावनाओं को सम्मिलित कर दिया है। प्रो. सेबाइन ने ग्रीन के उदारवाद को आदर्शवादी उदारवाद की संज्ञा दी है तथा साथ ही उनके उदारवाद में ब्रिटिश परम्पराओं का समावेश भी हो गया है । ग्रीन के इस उदारवादी स्वरूप को निम्न बिन्दुओं में स्पष्ट किया गया है-
(1) सार्वजनिक सद् -इच्छा का सिद्धान्त-प्रीन ने व्यक्ति के आत्मिक पूर्णत्व अन्तिम उद्देश्य माना है और राज्य तथा समाज को इस उद्देश्य की पूर्ति में व्यक्ति के कार्यक्षेत्र बना दिये हैं। व्यक्ति की असीम क्षमता उसकी सामाजिक चेतना में निहित है। उसकी इच्छा-शक्ति (Will-Power) सार्वजनिक सद्-इच्छा का ही व्यक्तगत रूप है, लेकिन यह सार्वजनिक सदू- इच्छा कभी भी राज्य या समाज के व्यक्ति में विलीन नहीं होती है।
(2) राज्य की सीमाओं का सिद्धान्त-ग्रीन ने राज्य पर कई सीमाएँ लगा दी हैं । प्रथम, ग्रीन का मानना है कि राज्य शक्ति का माध्यम है और प्रत्येक शव्ति सीमित होनी चाहिए। इसलिए अपनी प्रकृति के कारण भी राज्य सीमित है । यदि इसे अनियन्त्रित शक्ति दी जाएगी तो यह विनाश का कारण बन जाएगा। दूसरे, राज्य विश्व – बन्धूत्व की भावना से अपने कार्यक्षेत्र में सीमित और नियन्त्रित होता है। राज्य का उद्देश्य इस प्रकार विश्व कल्याण बताकर उसे सीमि करते हैं। इसीलिए उसे अन्तर्राष्ट्रीय नियमों तथा अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता का पालन करना होता है। तीसरे, आन्तरिक दृष्टि से भी राज्य सीमित है। इसके उद्देश्य उसके अन्दर निवास करने वाले व्यक्ति के कल्याण का कार्य करना है । इसलिए राज्य स्वयं के लिए न होकर व्यक्ति के कल्याण के लिए होता है। इस प्रकार यहाँ पर ग्रीन कांट और मिल के काफी नजदीक आ गए हैं, जहाँ से उनके रूद्िवादी उंदारवाद के स्वरूप की पूर्ण झलक मिलती है।
(3) स्वतंत्रता का सिद्द्धान्त-ग्रीन का स्वतंत्रता का सिद्धानंत भी ग्रीन को उदारवाद के नजदीक ले जाता है । ग्रीन ने स्वतंत्रता से आरम्भ किया है. इसमें उन्होंने स्वेच्छत कर्त्त्य का भावना को पूरी तरह निवाहा है फिर उन्होंने आत्म -चेतना से राज्य का निर्माण किया है जो यक्ति ग्रीन नं उदारवादी की चेतना को विकसित करने के लिए आवश्यक अधिकारों की रक्षा करता है और स्वतंत्रता का विवेचन नैतिक सद्-इच्छा में समाप्त कर अपने स्वतंत्रता के सिद्धान्त को
(4) ग्रीन के उदारवाद का मूल्यांकन-प्रो. मैक्सी ने ग्रीन के उदारवाद का मूत्याकन ) करते हुए स्पष्ट किया है कि ग्रीन के उदारवादी दर्शन में यह कमी देखने को मिलती है कि उन्होंने राज्य द्वारा उपभोग की जाने वाली सामाजिक सत्ता पर कोरई सीमा नहीं लगायी। उन्होंने सामाजिक कल्याण में राजनीतिक सत्ता के प्रयोग के लिए नैतिक औचित्य तो प्रस्तूत किया लेकिन वे राज्य की ऐसा सता के प्रयोग में कोई सीमा नहीं लगा सके जो इस आदर्श के अनुरूप न हो। ग्रीन के चिन्तन में आदर्शवादी तत्त्व ब्रैडले, बोसांके जैसे ग्रीन के अनेक प्रशंसकों ने ग्रीन को आदर्शवादी विचारक ताया और उनके आदर्शवाद को आगे बढ़ाया है। इन प्रशंसकों ने ग्रीन में हीगल की खोज की है और उसे हीगल के समकक्ष खड़ा करने में सारी शक्ति लगा दी है। यहाँ पर हम ग्रीन के आदर्शवादी चिन्तन को निम्नलिखित रूप में देख सकते हैं
(1) राज्य एक समुदाय है । (2) राज्य अधिकारों का स्रोत है । (3) राजनीतिक जीवन आध्यात्मिक या ईश्वरीय तत्वों का रहस्योद्घाटन है। (4) ईश्वरीय चेतना का ही इस जगत में अभिव्यक्तिकरण है । इसमें शाश्वत चेतना मर्तमान हो रही है। सभी समुदाय, संस्थाएँ व संगठन इसी ईश्वरीय चेतना के स्वरूप हैं। (5) राज्य एक नैतिक संस्था है । (6) मनुष्य के अन्दर आत्मा है। इस आत्मा से सद्-इच्छा का जन्म होता है । (7) राज्य के अन्दर ही मनुष्य सची मानवीयता प्राप्त कर सकता है। (8) स्वतंत्रता का अभिप्रय आत्मा के साथ तदाकार (एकाकार ) हो जाना है एवं यह सामाजिक कल्याण की हेतु है। ग्रीन एक बौद्धिक आदर्शवादी हैं (वेपर )-ग्रीन के आदर्शवाद पर टिप्पणी करते हुए वेपर महोदय ने लिखा है कि आदर्शवादियों में ग्रीन की आलोचना यद्यपि सबसे सरल है तथापि ग्रीन की बातों से इनकार करना उतना ही कठिन है । प्रथम तो, ग्रीन प्रत्येक संगठन को चेतना का स्वरूप मानते हैं। दूसरे, ग्रीन ने सम्प्रभुता के सिद्धान्त में रूसो और आस्टिन की सम्प्रभूता का मिश्रण कर दिया है । तीसरे, ग्रीन का आदर्शवाद अत्यधिक बौद्धिक है और उसमें व्यक्ति की भावनाओं की उपेक्षा कर दी गई है । चौथे, उन्होंने व्यक्ति को चेतना का स्वरूप मान लिया है। वेपर ने ग्रीन के आदर्शवाद की उपर्युक्त चार आधारों पर समालोचना करते हुए कहा कि ग्रीन के संगठनों को नैतिक मानने के पीछे उनम्में विद्यमान उस एकता की भावना को दिखाना है जो एक शक्ति के रूप में सभी संगठनों की पृष्ठभूमि में रहती है। इसी प्रकार ग्रीन व्यक्ति और संगठन सभी के मूल में आधार स्वरूप एक ही आत्मा को पाते हैं । उदारवादी विचारक जो व्यक्ति और समाज को अलग-आलग तत्व मानते हैं, उनके इस आदर्शवादी स्वरूप को अस्पष्ट घोषित कर देते हैं। ग्रीन की सम्प्रभुता लोकमत न होकर आत्मिक चेतना की शक्ति है और जब इस तथ्य को समझा जाता है तो यह अस्पष्टता खत्म हो जाती है । इसी प्रकार ग्रीन का समस्त दर्शन सद-इच्छा पर आधारित है और यह सद् -इच्छा भावनात्मक है । यह भावना प्रबल होकर अंधविश्वास में न बदल जाए उसकी सतर्कता इन्होंने बरती है। इस सतर्कता के कारण ही वेपर महोद्य ने उन्हें बौद्धिक आदर्शवादी कह दिया है । इस प्रकार स्पष्ट है कि ग्रीन के चिन्तन में पर्याप्त आदर्शवादी त्व पाये जाते हैं। ग्रीन के चिन्तन में आदर्शवाद विरोधी तत्व -ग्रीन के चिन्तन में अनेक ऐसी बातें हैं जो उन्हें आदर्शवाद से दूर ले जाती हैं । जैसेराज्य पर अनेक सीमाएँ लाद देना, युद्ध को एक बुराई मानते हुए व्यक्ति के जीवन के अधिकार का समर्थन करना, राज्य को सभी समुदायों से उत्कष्ट न मानकर अन्य समुदायों के समान ही एक समुदाय मानना तथा अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों को बहत अधिक स्थान देना तथा राज्य को उन्होंने साध्य न मानकर व्यक्ति के पूर्णत्व का केवल साधन माना है।
निष्कर्ष-इस प्रकार स्पष्ट है कि ग्रीन के राजनीतिक चिन्तन में उदारवाद एवं आदर्शवाद और नैतिकता का विचित्र मिश्रण है। यह कथन उप्युक्त विवेचन के आधार पर पूर्णतः उपयुक्त है